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Breaking News 9 September 2025

1 ) Why Is This Film Turning Into a National Debate?

थिएटरों के बाहर आंसू हैं, सोशल मीडिया पर गुस्सा और टीवी स्टूडियोज़ में बहस ! द बंगाल फाइल्स ने रिलीज़ के कुछ ही दिनों में देश को एक नया विमर्श दे दिया है।” फिल्म देखने के बाद बहुत से लोग इसे “gut-wrenching”, “soul-shaking” और “इतिहास की अनसुनी सच्चाई” कहकर बयां कर रहे हैं। X पर हैशटैग्स और रिव्यूज़ में लोग लिख रहे हैं कि यह फिल्म “एक जरूरी दस्तावेज़” है, जिसे देखने के बाद दर्शक लंबे समय तक चैन से नहीं बैठ सकते। विदेशों में भी शुरुआती रिव्यूज़ बेहद तीखे आए लोगों ने इसे hard-hitting और intense करार दिया। लेकिन इसी के साथ कई दर्शकों ने इसे “अत्यधिक ग्राफ़िक”, “असहनीय रूप से लंबी” और “प्रोपेगैंडा” कहकर खारिज भी किया। यानी फिल्म ने समाज को एक बार फिर दो हिस्सों में बांट दिया है। मुख्यधारा के फिल्म समीक्षक भी बंटे हुए हैं। रिव्यू वाले इसे पावरफुल मगर अतिरेक से लदी हुई फिल्म बताया जहाँ एक ओर दर्दनाक सच्चाइयाँ पर्दे पर जीवंत होती हैं, वहीं दूसरी ओर तीन घंटे बीस मिनट की लंबाई और लगातार खून-खराबे वाले दृश्य दर्शकों पर बोझ डालते हैं। हालाँकि, लगभग हर समीक्षक इस बात से सहमत दिखे कि पलवी जोशी और दर्शंद कुमार ने अपने अभिनय से फिल्म को संभाला। उनकी परफॉर्मेंस ने दर्शकों को भावनात्मक रूप से जोड़ने में बड़ी भूमिका निभाई। जैसा कि द कश्मीर फाइल्स के समय हुआ था, इस बार भी आलोचकों का बड़ा वर्ग इसे राजनीतिक एजेंडा मान रहा है। सोशल मीडिया पर बहस तेज है कुछ इसे हिंदुत्व-केंद्रित कथा कहते हैं, तो कुछ इसे वामपंथी इतिहास-लेखन का प्रतिकार। दिलचस्प बात यह है कि फिल्म के भीतर महात्मा गांधी को लेकर जो दृष्टिकोण दिखाया गया है, उस पर भी तीखी बहस छिड़ गई है। कुछ इसे ऐतिहासिक दस्तावेज़ मान रहे हैं, तो कुछ इसे इतिहास का तोड़-मरोड़ करार दे रहे हैं।

विदेशी दर्शकों का असर

विदेशों में रिलीज़ होते ही कई रिव्यूज़ ने फिल्म को “अनमिसेबल ट्रुथ” कहा। भारतीय डायस्पोरा के बीच फिल्म ने गहरी भावनाएँ जगाई हैं लोग लिख रहे हैं कि उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि इतना दर्दनाक हिस्सा पर्दे पर दिखाया जा सकता है। लेकिन वहीं कुछ विदेशी आलोचक इसे “एकतरफ़ा नैरेटिव” भी मान रहे हैं।
फिल्म का सबसे बड़ा असर यही है कि इसने 1946 के डायरेक्ट एक्शन डे और उसके बाद बंगाल में हुए सांप्रदायिक दंगों की याद फिर से जगा दी है। जिन घटनाओं में हजारों लोग मारे गए थे और लाखों को पलायन करना पड़ा था, वे लंबे समय तक सिर्फ किताबों और शोधपत्रों तक सीमित रहे। मुख्यधारा का सिनेमा इन पर चुप रहा। द बंगाल फाइल्स ने पहली बार इन्हें बड़े परदे पर लाकर एक ऐतिहासिक बहस छेड़ दी है। सवाल यही है कि क्या यह प्रस्तुति तथ्यात्मक रूप से संतुलित है या किसी राजनीतिक विचारधारा से प्रभावित? लेकिन इतना तय है कि फिल्म ने उन पन्नों को खोला है, जिन पर अक्सर धूल जमाकर छोड़ दिया गया था। ऐसे ही ट्रुथ बेस्ड न्यूज के लिए सब्सक्राइब करे ग्रेट पोस्ट न्यूज़।

 

2 ) Is Democracy Dead in Nepal?

नेपाल इस समय लोकतंत्र और सेंसरशाही की दो ध्रुवीय ताक़तों के बीच खड़ा है। सड़कों पर नारों की गूंज है और इंटरनेट की दुनिया में बंदिशों की परछाई। सवाल सिर्फ यह नहीं कि फेसबुक, इंस्टाग्राम या यूट्यूब चले या न चलें। सवाल यह है कि क्या जनता को अपनी आवाज़ उठाने का हक है या नहीं। नेपाल सरकार ने हाल ही में 26 बड़े सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर बैन लगाया। आधिकारिक तर्क था इन कंपनियों ने स्थानीय कानून का पालन नहीं किया और सुरक्षा को खतरा है। लेकिन विरोधियों और जनता का कहना है असल मकसद उन वायरल वीडियोज़ और पोस्ट्स को रोकना था जिनमें नेताओं और उनके रिश्तेदारों पर नेपोटिज़्म और भ्रष्टाचार के आरोप थे। यानी असली डर सुरक्षा का नहीं, सच्चाई के सामने आने का था। इस फैसले ने जैसे आग में घी डाल दिया। ऑनलाइन विरोध तेजी से ऑफलाइन सड़कों तक फैला। छात्र, युवा, व्यापारी और आम नागरिक सबने सरकार के खिलाफ आवाज़ बुलंद की। हालात बिगड़े और पुलिस ने आंसू गैस, वाटर कैनन, रबर बुलेट और कुछ जगह लाइव गोलियों तक का इस्तेमाल किया। नतीजा कम से कम 16 से 19 लोग मारे गए और सैकड़ों घायल हुए। रिपोर्ट्स कहती हैं कि घायल लोगों की संख्या 100 से लेकर 400 तक हो सकती है। अस्पतालों की इमरजेंसी रिपोर्ट और वीडियो बताते हैं कि यह महज़ झड़प नहीं बल्कि लोकतंत्र पर किया गया सीधा वार था। प्रदर्शनकारियों की माँगें अब चार दीवारों से निकलकर पूरे देश की जुबान बन चुकी हैं। पहला सोशल मीडिया बैन पूरी तरह हटाया जाए। दूसरा सत्ता के करीबी लोगों पर लगे भ्रष्टाचार और नेपोटिज़्म के आरोपों की स्वतंत्र और निष्पक्ष जाँच हो। तीसरा सुरक्षा बलों द्वारा की गई हिंसा पर जवाबदेही तय हो और दोषियों को सज़ा मिले। चौथा भविष्य में नागरिकों के डिजिटल अधिकारों की गारंटी दी जाए ताकि सरकारें मनमाने तरीके से जनता की आवाज़ को न दबा सकें। सरकार ने दबाव झेलते हुए बैकफुट पर कदम बढ़ाया। बैन वापस ले लिया गया और प्रधानमंत्री ने जांच का आदेश दिया। लेकिन यहाँ सवाल दो हैं क्या यह कदम सिर्फ अंतरराष्ट्रीय दबाव और जनता के गुस्से से बचने की कोशिश है? या सरकार वाकई पारदर्शिता चाहती है? आलोचकों का आरोप है कि यह जांच भी पुराने पैटर्न की तरह फाइलों में दब जाएगी और असल दोषियों तक कभी नहीं पहुंचेगी। सोशल मीडिया बैन का असर व्यापक रहा। लोकतांत्रिक संवाद पर यह एक बड़ा आघात था। नागरिकों की आवाज़ को दबाने से अफवाहों को जगह मिली और समाज में अविश्वास फैला। छोटे व्यापारी, डिजिटल क्रिएटर्स और ऑनलाइन काम करने वाले लोग सीधे प्रभावित हुए। डिजिटल इकोनॉमी को नुकसान हुआ। और दुनिया के सामने नेपाल की छवि एक ऐसे देश की बन गई जो जनता की आज़ादी से ज़्यादा सत्ता की सुविधा को महत्व देता है। मानवाधिकार संगठनों ने सरकार की तीखी आलोचना की और पड़ोसी देशों ने संयम बरतने की अपील की। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर नेपाल को जवाब देना पड़ा। लोकतंत्र के नाम पर चलने वाली सरकार अगर जनता की आवाज़ को गोली और बैन से दबाएगी तो उसका असर न सिर्फ देश की राजनीति बल्कि वैश्विक रिश्तों पर भी पड़ेगा। तात्कालिक असर साफ है सरकार की नैतिक साख पर गहरी चोट पड़ी है। विपक्ष को बड़ा मुद्दा मिला है और जनता का भरोसा कमजोर हुआ है। दीर्घकालिक असर और गहरा हो सकता है। यह आंदोलन युवा पीढ़ी की राजनीतिक चेतना को बदल देगा। जन-ज़ेड अब यह दिखा रही है कि वह केवल स्क्रॉलिंग मशीन नहीं है, बल्कि नागरिक है, जागरूक है और लोकतंत्र की नई धड़कन है। अगर सरकार ने पारदर्शिता और जवाबदेही का रास्ता नहीं चुना तो यही पीढ़ी सत्ता की जड़ों को हिला सकती है। समाधान भी सामने हैं। सरकार को स्वतंत्र और पारदर्शी जांच समिति बनानी होगी। डिजिटल अधिकारों के लिए स्पष्ट और सुरक्षित कानून बनाने होंगे। पुलिस सुधार लागू करने होंगे और पीड़ितों को मुआवजा और मदद देनी होगी। यही कदम जनता का भरोसा वापस ला सकते हैं। अन्यथा यह आंदोलन रुकने वाला नहीं है। नेपाल की गलियों में जो नारे गूंज रहे हैं, वे इंटरनेट या सोशल मीडिया के लिए नहीं, बल्कि लोकतंत्र की असली धड़कन के लिए हैं। सरकार ने बैन हटाकर सोचा कि मामला खत्म हो गया। लेकिन मौतों और घावों का हिसाब सिर्फ इस फैसले से नहीं चुकाया जा सकता। असली सवाल वही है क्या सरकार जनता की आवाज़ सुनने के लिए है या उसे दबाने के लिए? आने वाला इतिहास यही तय करेगा कि नेपाल ने इस मोड़ पर लोकतंत्र को मज़बूत किया या फिर कमजोर। ऐसे ही देश दुनिया की हर बड़ी अपडेट से जुड़ने के लिए सब्सक्राइब करें ग्रेट पोस्ट न्यूज़।

 

3 ) Vice President Election 2025 

भारत की राजनीति में आज एक अहम इम्तिहान हो रहा है उपराष्ट्रपति चुनाव। दिल्ली के संसद भवन के कमरा नंबर F-101 में सुबह 10 बजे से मतदान शुरू हुआ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहला वोट डालकर चुनावी माहौल को शुरू किया। यह चुनाव सिर्फ़ एक संवैधानिक पद की लड़ाई नहीं है, बल्कि संसद में ताक़त की असली तस्वीर भी पेश करता है।

क्यों हो रहा चुनाव?

21 जुलाई 2025 को उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने स्वास्थ्य कारणों का हवाला देते हुए अचानक इस्तीफ़ा दे दिया। उनका कार्यकाल 2027 तक था, लेकिन बीच में खाली हुई कुर्सी ने राजनीतिक हलचल तेज कर दी। चुनाव आयोग ने 1 अगस्त को अधिसूचना जारी की और विपक्ष व सत्ता पक्ष के बीच ‘कौन बनेगा उपराष्ट्रपति’ की जंग शुरू हो गई।

मैदान में कौन-कौन?

NDA का दांव: बीजेपी और उसके सहयोगियों ने महाराष्ट्र के राज्यपाल सी.पी. राधाकृष्णन को मैदान में उतारा। उन्हें मोदी-शाह का भरोसेमंद माना जाता है और पार्टी ने उन्हें एक सधे हुए संगठनकारी चेहरे के तौर पर पेश किया है।
INDIA ब्लॉक का प्रत्युत्तर: विपक्ष ने अपनी ‘एकजुटता’ दिखाने के लिए सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश बी. सुदर्शन रेड्डी को उम्मीदवार बनाया। रेड्डी खुद को लोकतंत्र और संविधान का सिपाही बताते हुए कह रहे हैं कि यह चुनाव ‘भारत की आत्मा’ के लिए है। रेड्डी को AIMIM जैसे दलों का समर्थन मिला है असदुद्दीन ओवैसी ने साफ कहा, “हम अपने हैदराबादी भाई को छोड़ेंगे नहीं।” लेकिन विपक्ष का यह जोड़-तोड़ संख्याओं की राजनीति में असरदार नहीं दिख रहा। NDA के पास दोनों सदनों में आराम से बहुमत है। यही वजह है कि राजनीतिक पंडितों का कहना है कि यह चुनाव राधाकृष्णन की जेब में पड़ा हुआ है। इस बीच रेड्डी का लालू प्रसाद यादव से मुलाक़ात करना विवाद में फँस गया। 25 वरिष्ठ विधि विशेषज्ञों ने इसे “निराशाजनक” करार दिया और विपक्ष की नैतिकता पर सवाल उठा दिए। बीजेपी ने भी हमला बोला “संविधान की दुहाई देने वाले लालू की गोदी में बैठे हैं।” यानी विपक्ष के लिए नैरेटिव बनाने में भी मुश्किलें खड़ी हो गईं। सुबह 10 बजे से मतदान शुरू हुआ और दोपहर 3 बजे तक करीब 96% वोटिंग हो चुकी थी। वोटिंग में सांसदों की भारी मौजूदगी रही, लेकिन कुछ दल जैसे बीजेडी, बीआरएस और अकाली दल ने किनारा कर लिया। यानी विपक्ष की एकजुटता की बात महज़ कागज़ पर ही रही।

आगे क्या होगा?

शाम 5 बजे: मतदान समाप्त। शाम 6 बजे: गिनती शुरू होगी। रात तक: परिणाम घोषित कर दिया जाएगा। इसके बाद औपचारिक प्रक्रिया पूरी होगी और नया उपराष्ट्रपति शपथ लेगा। साफ़ शब्दों में कहें तो सी.पी. राधाकृष्णन की जीत लगभग तय है। NDA के पास मजबूत संख्या बल है और विपक्ष की गणित कमजोर। विपक्ष भले ही इसे संविधान बचाने की जंग बता रहा हो, लेकिन हकीकत यह है कि संसद की गिनती में जज़्बात की नहीं, सिर्फ़ नंबरों की चलती है। यह चुनाव विपक्ष की ‘एकता’ की परीक्षा भी है और NDA की ताक़त का प्रदर्शन भी। लेकिन मौजूदा हालात में तस्वीर लगभग साफ़ है देश को आज रात तक नया उपराष्ट्रपति मिल जाएगा । ऐसे ही लेटेस्ट खबरों के लिए सब्सक्राइब करें ग्रेट पोस्ट न्यूज़।