7 अक्टूबर... तारीख वही है, लेकिन साल बदल गए हैं। यरुशलम से लेकर न्यूयॉर्क और लंदन तक आज मोमबत्तियाँ जल रही हैं इज़राइल का प्रमुख शहर तेल अवीव, आज भी उन जख्मों को याद कर रहा है जिनकी टीस दो साल से नहीं थमी… वहीँ न्यूयॉर्क के सेंट्रल पार्क और कोलंबिया यूनिवर्सिटी के लॉन पर 1,205 कुर्सियाँ खाली रखी गई हैं हर कुर्सी, एक जान का प्रतीक, जो 7 अक्टूबर 2023 को खत्म हो गई। लंदन, मैनचेस्टर, पेरिस, टोरंटो सब जगह एक ही सवाल गूंज रहा है, “क्या इन दो सालों में हमने कुछ सीखा?” आज से ठीक दो साल पहले, इसी दिन हमास ने इज़राइल पर वो हमला किया था, जिसने मध्यपूर्व की सीमाओं को नहीं, बल्कि इंसानियत की सीमाओं को लांघ दिया था। रॉकेटों की बौछार, सीमा तोड़ते हमलावर, और एक म्यूज़िक फेस्टिवल के बीच गोलियों से छलनी होती ज़िंदगियाँ नतीजा: 1200 से ज़्यादा लोग मारे गए, 251 बंधक बनाए गए, और इज़राइल ने उसी वक्त ऐलान कर दिया था “अब ये युद्ध रुकेगा नहीं।”
आज दो साल बाद, वो आग बुझी नहीं है... बस राख में बदल गई है जिसमें हर तरफ़ ग़म, गुस्सा और ग़लतियों की गंध है। इधर मिस्र की राजधानी काहिरा में आज से एक बार फिर ‘सीज़फायर वार्ता’ शुरू हो रही है।
मेज़ पर वही हैं मध्यस्थ मिस्र, क़तर और अमेरिका, और दोनों सिरों पर एक तरफ़ इज़राइल, दूसरी तरफ़ हमास , एजेंडा तय है:पहला चरण बंधकों की रिहाई और सीमित युद्धविराम। दूसरा चरण ग़ाज़ा की मानवीय सहायता और अंतरराष्ट्रीय निगरानी की रूपरेखा। मगर ये बातचीत सिर्फ़ कूटनीतिक नहीं, भावनात्मक भी है। क्योंकि 48 बंधक अब भी ग़ाज़ा में हैं, जिनमें से करीब 20 के जीवित होने की उम्मीद बाकी है। हर वार्ता टेबल पर बैठा प्रतिनिधि जानता है यहाँ सौदे की नहीं, ज़िंदगियों की कीमत लग रही है। इन दो सालों ने बहुत कुछ बदल दिया , ग़ाज़ा अब मलबे में तब्दील है, बच्चों के खेल के मैदान अब कब्रिस्तान बन चुके हैं। इज़राइल की सीमाएं पहले से ज़्यादा सख़्त हैं, लेकिन भीतर से वो देश भी थका हुआ और टूटा हुआ है। दुनिया भर में यह बहस जारी है कि ये जंग ‘आत्मरक्षा’ थी या ‘अंधी प्रतिशोध की भूख’।
सवाल वही है जो दो साल पहले था: क्या कोई ऐसी जंग है जिसमें कोई जीतता है? क्योंकि आंकड़े कहते हैं दोनों तरफ़ हज़ारों लोग मरे, लाखों बेघर हुए, और इंसानियत... वो तो दोनों के बीच कहीं कुचल गई। आज यरुशलम में जब लोग मोमबत्तियाँ जला रहे हैं, तो सिर्फ़ अपने मारे गए लोगों के लिए नहीं, बल्कि इस उम्मीद के लिए भी कि शायद एक दिन ये आग रुक जाएगी, शायद किसी बच्चे को आसमान में ड्रोन नहीं, इंद्रधनुष दिखेगा। और तब शायद ये तारीख़ 7 अक्टूबर सिर्फ़ कैलेंडर की नहीं, सीख की तारीख़ बन जाएगी। ऐसे ही देश दुनिया की खबरों को देखने के लिए subscribe करे ग्रेट पोस्ट न्यूज.
बिहार में सियासत फिर से गरम है। हवा में चुनाव की गंध है और गलियों में बहसों का शोर। दो चरणों में होने वाले इस विधानसभा चुनाव की तारीखें तय हैं पहला चरण 6 नवंबर को और दूसरा 11 नवंबर को। फिर 14 नवंबर को नतीजों की गिनती होगी, जब साफ़ हो जाएगा कि जनता ने किसे अपना नेता चुना। 6 अक्टूबर से आचार संहिता लागू है और अब हर पार्टी अपनी रणनीति को आखिरी मोड़ दे रही है। इस बार की लड़ाई दो बड़े खेमों के बीच है। एक तरफ वो गठबंधन है जो “विकास और सुशासन” का नारा लेकर मैदान में उतरा है, और दूसरी तरफ वो गठबंधन जो “रोज़गार, शिक्षा और बदलाव” की बात कर रहा है। पहले वाले गुट का भरोसा अपने संगठन, सरकारी कामकाज और अनुभव पर है, जबकि दूसरे गुट की उम्मीदें जनता के असंतोष, बेरोजगारी और किसान जैसे ज़मीनी मुद्दों पर टिकती हैं। दोनों तरफ सीट शेयरिंग को लेकर अब भी खींचतान जारी है। छोटे दलों की अपनी-अपनी मांगें हैं, और स्थानीय नेताओं के दबाव में कई सीटों पर समीकरण बदलने की नौबत आ रही है। चुनाव आयोग की तैयारी इस बार पहले से ज़्यादा सख़्त और टेक्नोलॉजिकल है। हर बूथ पर वेबकास्टिंग की सुविधा होगी, मतदान केंद्रों के बाहर मोबाइल फोन जमा करने की व्यवस्था होगी, ताकि किसी तरह की रिकॉर्डिंग या गड़बड़ी की गुंजाइश न रहे। नदी किनारे या दूरदराज़ इलाकों में पोलिंग पार्टियां नाव से पहुँचेंगी, तो कुछ जगह पुलिस घोड़ों पर गश्त करेगी। यह नज़ारा बताता है कि लोकतंत्र सिर्फ़ वोटिंग मशीनों तक सीमित नहीं, बल्कि भूगोल और लॉजिस्टिक्स की परीक्षा भी है। प्रशासन ने लगभग हर बूथ पर कैमरे लगाए हैं और विशेष निगरानी दल बनाए हैं, जो किसी भी असामान्य गतिविधि की रिपोर्ट तुरंत देंगे।
मतदाताओं को इस बार वोटर इंफॉर्मेशन स्लिप मिलेगी, जिसमें उनका बूथ नंबर, समय और सीरियल लिखा होगा। पहचान पत्र के साथ स्लिप दिखाकर ही मतदान किया जा सकेगा। चुनाव आयोग का मानना है कि यह प्रणाली मतदान प्रतिशत बढ़ाने में मदद करेगी। मोबाइल और डिजिटल प्रचार पर भी नज़र रखी जाएगी। फर्जी सिम, कॉल सेंटर या व्हाट्सएप ग्रुप के ज़रिए झूठी सूचनाएँ फैलाने वालों पर निगरानी रखी जा रही है।
अगर बात मतदाता के मिज़ाज की करें तो इस बार जनता चुप है, लेकिन सतर्क है। चाय की दुकानों, मंडियों और बस अड्डों पर चर्चा चल रही है “इस बार कौन?” अब बिहार का वोटर सिर्फ़ वादों पर भरोसा नहीं करता, वह ट्रैक रिकॉर्ड देखता है, वह याद रखता है कि पिछले पाँच साल में क्या हुआ। युवाओं की सबसे बड़ी चिंता है नौकरी, महिलाओं की सुरक्षा और शिक्षा व्यवस्था, जबकि किसानों के लिए सिंचाई और समर्थन मूल्य अब भी अधूरी कहानी है। पोल के शुरुआती रुझान बताते हैं कि सत्ता पक्ष फिलहाल थोड़ी बढ़त पर है। अनुमान कह रहे हैं कि सत्तारूढ़ गठबंधन को 130 से 150 सीटें मिल सकती हैं, जबकि विपक्षी मोर्चे को 80 से 110 के बीच सीटें मिल सकती हैं। लेकिन बिहार की राजनीति में रुझान हमेशा भरोसेमंद नहीं होते। कई बार जो हवा दिखती है, वो मतदान के दिन बदल जाती है। कुछ सीटों पर मुकाबला इतना नज़दीकी होगा कि जीत-हार सौ या दो सौ वोटों में तय होगी। तीसरी ताकतें, जैसे छोटे क्षेत्रीय दल या स्वतंत्र उम्मीदवार, इन जगहों पर ‘कटाव वोट’ बन सकते हैं। आंकड़ों के मुताबिक़, इस बार लगभग 15 लाख नए वोटर पहली बार मतदान करेंगे। 14 नवंबर को जब नतीजे आएँगे, तो कुछ चेहरे खिलेंगे और कुछ चेहरों की खामोशी बहुत कुछ कहेगी। ऐसे ही लेटेस्ट खबरों को देखने के लिए सब्सक्राइब करें ग्रेट पोस्ट न्यूज़।