बिहार ने फिर इतिहास लिख दिया है इस बार स्याही से नहीं, उंगली पर लगी स्याही से। 121 सीटों पर पड़े वोटों की बारिश ऐसी हुई कि चुनाव आयोग को भी छतरी निकालनी पड़ी 64.7% मतदान! मतलब जनता घर से निकली है, और इस बार “चाय नहीं, जवाब दे रही है।” अब कौन कहे कि बिहारी राजनीति में रुचि नहीं रखते? लेकिन असली सवाल वही पुराना है क्या ये वोट बदलाव का है, या भरोसे का? क्योंकि दोनों तरफ से दावे ऐसे हैं जैसे शादी में दोनों बरातें एक ही मंडप में पहुँच गई हों।
NDA वाले कह रहे हैं “पहले चरण में तो लीड हमारी पक्की है।”
वहीं विपक्ष के कैंप में हल्की मुस्कान है “इतना भी यकीन मत रखो, जनता जब उठती है तो सत्ता बदल जाती है।” गांवों में लोग बता रहे हैं कि इस बार मुद्दा महंगाई नहीं, मनोदशा है। लोग कह रहे हैं, “रोजगार का वादा हुआ था, लेकिन रोज़गार का रेट बढ़ गया।” शहरों में नौजवानों की भाषा में कहो तो “मूड स्विंग ऑन है।” कहीं “मोदी भरोसे” की गूंज है, तो कहीं “अबकी बार बदलाव जरूरी” का शोर। सोशल मीडिया पर भी लड़ाई जारी है एक तरफ प्रधानमंत्री“#Modi” का ट्रेंड करता है, तो दूसरी तरफ किसी और का नारा उछलता है। मतलब पटना से पूर्णिया तक सियासी थर्मामीटर फीवर मोड में है।
मोदी फैक्टर अभी भी ताकतवर है, ये कोई रहस्य नहीं। लेकिन बिहार में समीकरण सिर्फ मोदी के नाम पर नहीं चलते यहाँ जात, जुबान और जनभावना का कॉकटेल बनता है। इसलिए जो ये सोच रहा है कि चुनाव पहले चरण में ही फाइनल हो गया, वो भूल रहा है बिहार में खेल आखिरी चरण में ही पलटता है। मतलब, जनता ने “मूड” तो दिखा दिया है, लेकिन “निर्णय” अभी जेब में रखा है। वोटिंग बढ़ी है और बढ़ा हुआ वोट बिहार में हमेशा किसी कहानी का इशारा देता है। अब वो कहानी “कंटिन्यूटी की” होगी या “चेंज की”, ये 10 करोड़ बिहारी तय करेंगे, वो भी अपने ठेठ अंदाज़ में “करेजनीं, सब कुछ सोच के वोट दिए हैं।” पहले चरण ने साफ कर दिया कि बिहार अब उब गया नहीं, उठ खड़ा हुआ है।
भीड़ में जोश है, ललकार है, और सत्ता से सवाल करने की हिम्मत है। लेकिन जीत किसकी होगी, ये कोई भी पंडित या सर्वेयर 100% नहीं बता सकता।
पश्चिम बंगाल में अब SIR यानी Special Intensive Revision को लेकर फिर मामला गर्म हो चुका है, तृणमूल कांग्रेस (TMC) ने इस प्रक्रिया को “Silent Invisible Rigging” यानी “शांत लेकिन अदृश्य धांधली” बताया है। पार्टी का आरोप है कि SIR की आड़ में वास्तविक मतदाताओं के नाम हटाए जा रहे हैं और फर्जी प्रविष्टियाँ जोड़ी जा रही हैं। इस संबंध में TMC ने चुनाव आयोग को एक औपचारिक पत्र लिखा है, ऐसा खबरें चल रही है, जिसमें उन्होंने चेताया है कि अगर किसी भी असली मतदाता को सूची से हटाया गया, तो पार्टी सड़क से लेकर अदालत तक संघर्ष करेगी। ममता बनर्जी की सरकार ने SIR के दौरान निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए “विजिलेंस ड्राइव” शुरू की है जिसमें बूथ स्तर पर पार्टी कार्यकर्ताओं को नियुक्त किया गया है, ताकि हर नागरिक का नाम मतदाता सूची में सुरक्षित रहे।
दूसरी ओर, विपक्ष यानी भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने तृणमूल के आरोपों को “राजनीतिक नाटक” बताया है। विपक्ष का कहना है कि SIR प्रक्रिया के माध्यम से TMC बंगाल की राजनीतिक जमीन पर “पीड़ित बनाम जिम्मेदार” की छवि गढ़ना चाहती है। बीजेपी नेता सुवेंदु अधिकारी ने चुनाव आयोग से शिकायत करते हुए दावा किया है कि हाल के दिनों में 70,000 से अधिक नए मतदाता आवेदन दर्ज हुए हैं, जिनमें “अवैध प्रवासियों” के नाम शामिल हैं।
इसी बीच, SIR प्रक्रिया के दौरान राज्यभर में लगभग 80,000 Booth Level Officers (BLOs) घर-घर जाकर सत्यापन कार्य कर रहे हैं। लेकिन BLO संगठन ने भी अपनी चिंताएँ जताई हैं सुरक्षा, कार्यदबाव और ऑन-ड्यूटी स्थिति को लेकर कई जगह विरोध के संकेत मिल रहे हैं। कुछ BLOs ने तो यहां तक कहा है कि यदि सुरक्षा और उचित व्यवस्थाएँ नहीं दी गईं, तो वे कार्य से विरत हो सकते हैं। SIR की प्रक्रिया को लेकर कानूनी और सामाजिक दोनों आयाम भी उभर रहे हैं। हाल के दिनों में कुछ क्षेत्रों में ऐसी दुखद घटनाएँ सामने आईं, जहां लोगों ने पहचान दस्तावेजों की कमी या सूची से नाम हटने के डर में आत्महत्या जैसा कदम उठा लिया। इससे राजनीतिक और मानवीय दोनों बहसें तेज़ हो गई हैं। वास्तविक सवाल अब यह है क्या SIR वाकई एक निष्पक्ष सुधार प्रक्रिया है, या यह बंगाल की चुनावी राजनीति का नया मोर्चा बन गया है? क्योंकि राज्य में हर चुनाव से पहले एक पुरानी परंपरा दोहराई जाती है “यहाँ सिर्फ चुनाव नहीं, लोकतंत्र की दिशा तय होती है।” और इस बार, यह दिशा EVM की मशीनों में नहीं, बल्कि वोटर लिस्ट के पन्नों में तय हो रही है।