बिहार…जहाँ चुनाव का मौसम किसी त्योहार से कम नहीं होता पोस्टर, पंपलेट, और पंडालों के बीच हवा में जोश भी है और सवाल भी। इस बार का इलेक्शन, 2025 का यह संग्राम, सिर्फ यह तय नहीं करेगा कि सत्ता किसके पास जाएगी, बल्कि यह भी कि जनता अब किस सोच पर भरोसा करती है सत्ता की निरंतरता पर या बदलाव की उम्मीद पर बिहार की गलियों में एक गूंज है “ए बार का होई?” और जवाब में तीन सुर हैं। पहला, नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार की जोड़ी वाली NDA जो विकास की निरंतरता का दावा कर रही है। दूसरा, तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाला महागठबंधन (MGB) जो कह रहा है कि बदलाव का वक्त आ चुका है। तीसरा, प्रशांत किशोर का जन सुराज, जो अब तक “विकल्प” नहीं बल्कि “विचार” के रूप में उभर रहा है एक ऐसा आंदोलन जो राजनीति को फिर से ज़मीन से जोड़ना चाहता है। अब आते हैं उन अंकों पर जो बिहार की राजनीति का तापमान माप रहे हैं। वर्तमान में जो पोल-ऑफ-पोल्स तस्वीर उभर रही है, वह कुछ यूँ है: NDA का वोट शेयर – 41% से 49% तक, सीटें 120 से 160 तक। महागठबंधन (RJD + कांग्रेस + लेफ्ट) 36% से 41% वोट, सीटें 70 से 112 तक। जन सुराज (प्रशांत किशोर) – 6% से 9% वोट, 0 से 5 सीटें तक का अनुमान। यानि आंकड़ों की भाषा में, NDA के पास “एज” है, पर बढ़त आरामदायक नहीं। यह वही फर्क है जो चुनाव में जीत और हार के बीच सांस की दूरी तय करता है। जरा सोचो बिहार जैसा राज्य जहाँ एक-एक सीट जातीय संतुलन, पंचायत की राजनीति और नेता के व्यक्तित्व पर निर्भर करती है वहाँ 2% वोट का झोंका पूरा गणित उलट सकता है। अब देखो मैदान का मिज़ाज नीतीश कुमार थके नहीं हैं, पर आलोचनाओं से घिरे हैं। मोदी की लोकप्रियता राष्ट्रीय है, मगर बिहार में लोकल मुद्दों का शोर ज़्यादा है। दूसरी तरफ तेजस्वी यादव अब लड़के नहीं, “नेता” बन चुके हैं। उनके पास बेरोजगारी का एजेंडा है, युवा जोश है और पुरानी राजनीति से मोहभंग का फायदा भी। और जन सुराज? वो हवा है अदृश्य पर असरदार। वह तीसरा मोर्चा नहीं, बल्कि तीसरा मनोविज्ञान है जो यह कह रहा है कि “राजनीति को फिर से जनता के बीच लौटना होगा।”कहीं NDA 49% तक पहुंच रहा है, कहीं MGB 39% के पार टिक रहा है। आंकड़े बताते हैं कि दोनों के बीच बस 2 से 3 प्रतिशत का फासला है। यानी बिहार का रणक्षेत्र वही है जहाँ आख़िरी बूथ पर खड़ा वोटर तय करेगा कि सत्ता की गद्दी पर कौन बैठेगा। लेकिन, बात सिर्फ वोटों की नहीं है यह विचारों की लड़ाई है। एक ओर वो सोच है जो कहती है “विकास के नाम पर भरोसा रखो, स्थिरता ज़रूरी है।” दूसरी ओर वो आवाज़ है जो पूछती है “अगर विकास हुआ तो बेरोज़गारी क्यों बढ़ी?” और तीसरी ओर, जन सुराज जैसा आंदोलन है जो कह रहा है “राजनीति को फिर से जनसेवा में लौटना होगा, ना कि केवल सत्ता की कुर्सी में।” बिहार के बूथों पर इस बार एक नया चेहरा दिख रहा है महिला वोटर का,ECI के ताज़ा आंकड़ों के मुताबिक, महिलाओं का वोट प्रतिशत पुरुषों से कई जगह आगे है। यह वही तबका है जो LPG, महंगाई और शिक्षा के मुद्दे पर निर्णय लेगा नारे पर नहीं, अनुभव पर। और अगर इस वर्ग ने झुकाव बदला, तो पूरे चुनाव की दिशा बदल सकती है।
लोकतंत्र में चुनाव केवल राज बदलने की प्रक्रिया नहीं है; यह “सत्ता के अहंकार और जनता के विवेक” का संवाद है। बिहार की मिट्टी ने हमेशा तय किया है कि “राजनीति को जनता के बीच लौटना ही होगा।” कभी जयप्रकाश आंदोलन के रूप में, कभी लालू की समाजवादी धारा के रूप में, और अब शायद जन सुराज के प्रयोग के रूप में यह राज्य फिर से अपने भीतर की चेतना को खोज रहा है। अगर NDA फिर लौटता है, तो वह जीत सिर्फ मोदी या नीतीश की नहीं होगी बल्कि उस विचार की होगी जो कहता है कि “स्थिरता भी विकास का हिस्सा है।” अगर महागठबंधन जीतता है, तो वह संकेत होगा कि “जनता बदलाव से डरती नहीं, उसे गले लगाती है।” और अगर किसी सीट पर जन सुराज सेंध लगाता है, तो वह बिहार की राजनीति में एक नया अध्याय होगा जहाँ जनता फिर से “आशा” को वोट देगी, “नेता” को नहीं। तो सवाल सिर्फ इतना नहीं कि “कौन जीतेगा?” असल सवाल यह है “जनता किस सोच को जिंदा रखना चाहती है?” क्योंकि बिहार का चुनाव हमेशा देश की राजनीति का थर्मामीटर रहा है यहाँ जो होता है, उसका असर संसद तक पहुँचता है। और इस बार, जब 14 नवंबर को मतगणना शुरू होगी, तब सिर्फ नतीजे नहीं आएंगे लोकतंत्र का आत्मचिंतन भी होगा।
बिहार चुनाव पर कुछ दिनों से भोजपुरी कलाकारों के तर्क वितर्क से हर जगह माहौल गरम हो चुका है जिनमें keshari लाल यादव अब राष्ट्रीय जनता दल (RJD) के झंडे तले बिहार की राजनीति में उतर चुके हैं के 17 अक्टूबर 2025 को उन्होंने अपनी पत्नी चंदा देवी के साथ पार्टी ज्वाइन की और कहा “अब वक्त है बिहार में बदलाव का।” सूत्रों के मुताबिक, RJD ने उन्हें छपरा (सारण) सीट से टिकट दिया है और पार्टी को उम्मीद है कि खेसारी की फैन फॉलोइंग अब वोट फॉलोइंग में बदलेगी। लेकिन बस, यहीं से भोजपुरी राजनीति का नाटक शुरू हो गया। भाजपा सांसद और भोजपुरी स्टार दिनेश लाल यादव ‘निरहुआ’ ने खेसारी पर करारा वार किया। उन्होंने मंच से कहा “जो राम मंदिर का विरोध करे, वो यादव नहीं हो सकता, वो ‘यदुमुल्ला’ है।” यह बयान सोशल मीडिया पर आग की तरह फैल गया। निरहुआ ने खेसारी पर “आस्था विरोधी” होने का आरोप लगाया और कहा कि जो कृष्ण के वंशज हैं, उन्हें मंदिर के विरोध में बोलना शोभा नहीं देता।
खेसारी ने भी पलटवार में कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने कहा “मनोज तिवारी, रवि किशन, और निरहुआ जैसे लोग सांसद बनकर क्या कर पाए? जनता की हालत जस की तस है।”
यानी मामला केवल राजनीतिक नहीं रहा, यह अब भोजपुरी बनाम भोजपुरी की जंग में बदल गया। इस झगड़े में जल्द ही भाजपा सांसद रवि किशन भी कूद पड़े। उन्होंने खेसारी पर तंज कसते हुए कहा “भोजपुरी इंडस्ट्री को जो बदनाम कर रहे हैं, वो अब उसे राजनीति का मंच बना रहे हैं।” रवि किशन का इशारा साफ था सिनेमा की लोकप्रियता का इस्तेमाल वोट बैंक में करने की कोशिश। वहीं पवन सिंह, जो पहले विधानसभा चुनाव न लड़ने की घोषणा कर चुके थे, उन्होंने भी टिप्पणी दी “जनता सब देख रही है, चुनाव के बाद सब कुछ साफ हो जाएगा।” पवन और खेसारी के बीच पहले से ही व्यक्तिगत तकरार रही है पवन पर निजी टिप्पणी करने के बाद खेसारी ने कहा था, “मैं एक ही पत्नी के साथ रहता हूँ,” जिससे विवाद और बढ़ गया। अब अगर डेटा की बात करें तो RJD को उम्मीद है कि खेसारी यादव सारण में यादव-भूमिहार-ब्राह्मण समीकरण को अपने फेवर में मोड़ सकते हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, पार्टी मान रही है कि भोजपुरी ऑडियंस में खेसारी की अपील इस बार वोट में बदल सकती है।
वहीं भाजपा की स्ट्रैटेजी है कि निरहुआ-पवन-रवि किशन जैसे चेहरे हिंदुत्व और आस्था का नैरेटिव मजबूत रखें ताकि खेसारी का “बदलाव और बेरोज़गारी” वाला नैरेटिव कमजोर पड़े।
मुद्दे क्या हैं असल में?
खेसारी यादव हर रैली में कहते हैं “बिहार को मंदिर नहीं, रोजगार और अस्पताल चाहिए।” वहीं भाजपा का जवाब है “बिहार को आस्था और विकास दोनों चाहिए, न कि जंगलराज।” रिपोर्ट के अनुसार, BJP इस बयान को RJD के पुराने “जंगलराज” की याद से जोड़कर प्रचारित कर रही है। खेसारी का RJD जॉइन करना एक तरफ युवाओं और प्रवासी बिहारी वोटर्स को आकर्षित कर रहा है, वहीं दूसरी तरफ पार्टी के भीतर भी असंतोष है क्योंकि पुराने नेताओं को लगा कि टिकट किसी फिल्मस्टार को मिल गया तो उनकी जीत पक्की है । यानी साफ है बिहार का चुनाव अब केवल राजनीतिक जंग नहीं, बल्कि एक शो बन चुका है ।