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Breaking News 4 December 2025

1 )  क्या अब आपका मोबाइल सरकार का नया ‘सीसीटीवी कैमरा’ बन जाएगा?

देशभर में एक ही सवाल गूंज रहा है क्या संचार साथी ऐप हर नए मोबाइल में मजबूरी में डाला जाएगा? क्या सरकार अब हमारी कॉल, मैसेज, लोकेशन, फोटो… सब पर नज़र रख सकेगी? इस एक ऐप ने सोशल मीडिया, यूट्यूब, इंस्टाग्राम हर जगह बहस की आग लगा दी है। कोई इसे “डिजिटल निगरानी तंत्र” कह रहा है, तो कोई इसे “साइबर फ्रॉड से बचाने वाला सुरक्षा कवच” बता रहा है। लेकिन सच क्या है? डर कितना सही है? और सरकार की बातों में कितनी पारदर्शिता है? चलिए, पूरा सच समझते हैं डेटा, फैक्ट और ग्राउंड रिपोर्ट्स के साथ।

 संचार साथी असल में है क्या? सरकार का दावा क्या कहता है

संचार साथी यानी Department of Telecommunications की आधिकारिक पहल है। पहले यह सिर्फ एक वेब पोर्टल था लॉन्च हुई मई 2023 में फिर इसका मोबाइल ऐप 17 जनवरी 2025 को आया। सरकार का दावा है कि ऐप तीन बड़े काम करता है: चोरी/गुम हुए फोन को IMEI ब्लॉक और ट्रैक करना, आपके नाम पर कितने SIM रजिस्टर्ड हैं, यह चेक करना , फ्रॉड कॉल्स, स्पैम, फिशिंग, नकली IMEI आदि की शिकायत और वेरिफिकेशन । सरकार इसे “कम्युनिकेशन सिक्योरिटी की दिशा में बड़ा कदम” बता रही है। लेकिन विवाद यहाँ से शुरू होता है… 28 नवंबर 2025 को आई रिपोर्ट्स में बताया गया कि सरकार ने सभी मोबाइल कंपनियों को आदेश दिया है कि “भारत में बिकने वाले हर नए स्मार्टफोन में संचार साथी ऐप पहले से इंस्टॉल होगा।” इसके लिए कंपनियों को 90 दिन का समय दिया गया है। इससे विवाद में आग लग गई  क्योंकि यह सिर्फ “डाउनलोड” नहीं, बल्कि forced pre-installation है।

 विवाद की जड़: क्या ऐप हटाया नहीं जा सकता था?

डिजिटल एक्टिविस्ट्स और कई मीडिया रिपोर्ट्स में दावा हुआ कि शुरुआती ड्राफ्ट में लिखा था “यूज़र ऐप को न तो डिसेबल कर सकेगा, न अनइंस्टॉल।” यानी ऐप सिस्टम लेयर में रहेगा ठीक वैसे ही जैसे कुछ गवर्नमेंट या मैन्युफैक्चरर के कोर ऐप्स रहते हैं। यही लाइन इस पूरे राजनीतिक-निजता विवाद की सबसे बड़ी चिंगारी बनी। साइबर-सिक्योरिटी एक्सपर्ट्स का कहना है कि एक सरकारी ऐप जो सिस्टम लेवल पर प्री-इंस्टॉल हो  इसका मतलब है कि वह कॉल लॉग, मैसेज मेटाडाटा, लोकेशन, ऐप एक्टिविटी, डिवाइस आइडेंटिटी तक पहुँच सकता है। कई लोग इसे Pegasus 2.0 बताकर तुलना कर रहे हैं। विपक्षी दल कह रहे हैं कि यह नागरिकों की निजता पर हमला है। आम जनता बोल रही है। “सरकारी ऐप को हम चाहें भी तो नहीं हटाएँ? ये कैसा डिजिटल इंडिया है?” सोशल मीडिया पर डर इस कदर फैला कि हर क्रिएटर ने अपनी भाषा में मोर्चा खोल दिया यूट्यूब, इंस्टाग्राम, X… हर जगह गर्म बहस। जैसे ही विवाद बढ़ा, संचार मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया सामने आए और कहा “संचार साथी अनिवार्य नहीं है, यूज़र चाहे तो ऐप को हटा सकता है। रजिस्ट्रेशन भी वैकल्पिक है।” यानी सरकार ने दबाव में “क्लैरिफिकेशन” दिया कि प्री-इंस्टॉल होगा लेकिन यूज़र चाहे तो डिलीट कर सकता है  ऐप को इस्तेमाल करना जरूरी नहीं लेकिन आलोचकों का कहना है “अगर शुरुआत में ही साफ होता, तो विवाद क्यों होता? क्या सरकार पहले इसे अन-removable बनाना चाहती थी?” यहीं से असली अविश्वास पैदा हुआ।

 तो अब सच्चाई क्या बनती है? तो हाँ नए फोन में यह प्री-इंस्टॉल आएगा। हाँ इसकी शुरुआत सरकारी आदेश से हुई है। और हाँ शुरुआती डॉक्यूमेंट में इसे अन-डिलीटेबल बताया गया था। हाँ इससे डेटा प्राइवेसी की वास्तविक चिंताएँ पैदा हुई हैं। सरकार ने दबाव में बयान बदला कि इसे हटाया जा सकता है।  यानी तकनीकी स्तर पर विवाद इसलिए फूटा… क्योंकि एक सरकारी ऐप को सिस्टम लेवल पर ज़बरदस्ती डालने का अर्थ है  डिवाइस  और डेटा तक पहुँच की संभावनाएँ बढ़ जाती हैं। अब चाहे सरकार कहे कि ऐसा नहीं होगा लेकिन जनता विश्वास तब करेगी जब ऐप का पब्लिक ऑडिट हो सोर्स कोड ओपन हो डेटा एक्सेस का स्पष्ट दस्तावेज हो फिलहाल ऐसा कुछ नहीं दिखता।  लोग क्या कह रहे हैं? सोशल मीडिया की आवाज़ें क्या है क्रिएटर कम्युनिटी कहती h “यह जनता की निगरानी का नया मॉडल है।” गोपनीयता समर्थक कहते है “अगर आज सरकार एक ऐप जबरदस्ती डाल सकती है तो कल कैमरा/माइक एक्सेस लेने वाला ऐप भी डाल सकती है।” सरकार समर्थक कह रहे हैं “अगर फ्रॉड कम होगा, चोर पकड़ेंगे, IMEI ब्लॉक होगा तो यह जरूरी कदम है।” आम जनता में आधे लोग डरे हुए हैं और आधे लोग confused हैं कि असली सच क्या है। इससे जुड़ी अपडेट के लिए सब्सक्राइब करें ग्रेट पोस्ट न्यूज़।

 

2 )  Exposing Lalu Yadav: A Scandal Running for Decades

क्या देश की सबसे पुरानी राजनीतिक विरासतों में से एक अब न्यायिक प्रक्रिया की सबसे लंबी सुरंग में फँस चुकी है? क्या “लैंड-फॉर-जॉब” मामला सच में इतना बड़ा है कि 20 साल बाद भी अदालत अंतिम शब्द नहीं बोल पा रही? और क्या यह राजनीतिक प्रतिशोध है या ‘सिस्टम’ का धीमा न्याय? बिहार की राजनीति में लालू प्रसाद यादव केवल एक नेता नहीं एक दौर हैं। लेकिन इसी दौर पर लगा सबसे बड़ा दाग, “लैंड-फॉर-जॉब” घोटाला, दो दशक से अदालतों में घूमते हुए आज भी एक ऐसे मुकाम पर है जहाँ हर सुनवाई उम्मीद जगाती है, और हर स्थगन (postponement) फिर उसी गोलचक्कर में लौटा देता है। 2004–2009 के बीच रेल मंत्री रहे लालू यादव पर आरोप है कि रेलवे/IRCTC की नौकरियों के बदले ज़मीन ली गई कभी सीधे, कभी बेनामी तौर पर, कभी परिवार की कंपनियों/सहयोगियों के नाम पर। ये आरोप सिर्फ़ नौकरी और जमीन के बीच की अदला-बदली तक सीमित नहीं थे, बल्कि भ्रष्टाचार, धोखाधड़ी, आपराधिक साजिश और धन शोधन तक फैले।

इस मामले की शुरुआत 2004 से 2009 के बीच हुई, जब लालू यादव रेलवे मंत्री थे। CBI के अनुसार, इसी दौरान कुछ उम्मीदवारों को रेलवे में नौकरी दी गई और बदले में जमीन बाजार मूल्य से बेहद कम दाम पर लालू परिवार से जुड़ी संस्थाओं या सहयोगियों को ट्रांसफर की गई। मॉडल यह था नौकरी के बदले जमीन, और जमीन के दस्तावेज़ कई बार बेनामी ट्रांसफर, कम कीमत, और परिवार से जुड़ी कंपनियों के जरिए किया गया। CBI का दावा है कि यह कोई अलग-अलग घटना नहीं, बल्कि एक संगठित पैटर्न था। टाइमलाइन देखें तो मामला और लंबा लगता है। 2004–09 में कथित अनियमितताएँ हुईं। फिर 2017 से 2022 के बीच FIR और जांच चली। 9 मई 2025 को राष्ट्रपति ने लालू यादव के खिलाफ अभियोजन अनुमति दी। जुलाई 2025 में सुप्रीम कोर्ट ने ट्रायल रोकने से इनकार किया। सितंबर 2025 में Rouse Avenue Court ने बहस सुनकर फैसला सुरक्षित रखा। 13 अक्टूबर 2025 को अदालत ने गंभीर आरोपों साजिश, भ्रष्टाचार, cheating और PC Act के उल्लंघन के तहत charges तय किए। 28 जुलाई से नवंबर 2025 के बीच सुनवाई लगातार चलती रही। 4 दिसंबर 2025 अगली तारीख रखी गई, और फैसला अब भी लंबित है। 8 दिसंबर तक भी अंतिम आदेश टल चुका है। यानी, मामला लगातार बढ़ता जा रहा है और अदालत की तारीखें आगे खिसकती जा रही हैं। आरोपों में रेलवे में नौकरी के बदले जमीन देना शामिल है। जमीन अक्सर बाजार मूल्य से बहुत कम दाम पर ट्रांसफर हुई। कई दस्तावेज़ों में IRCTC और रेलवे से जुड़े टेंडरों में गड़बड़ियों के भी आरोप हैं। IPC 120B के तहत क्रिमिनल कॉन्स्पिरेसी, cheating, और PC Act के तहत भ्रष्टाचार के आरोप लगाए गए हैं। धन शोधन की भी बात कही गई कि जमीन और अन्य लाभों को बाद में वैध संपत्ति के रूप में दिखाया गया। अदालत ने इन आरोपों को prima facie पर्याप्त मानते हुए charges फ्रेम किए हैं। मामला खत्म क्यों नहीं हुआ? इसके कई कारण हैं। सबसे बड़ा कारण है कि कई आरोपी हैं लालू यादव, राबड़ी देवी, तेजस्वी यादव और अन्य। कई जमीनों, कंपनियों, बैंक रिकॉर्ड और ट्रस्ट के डाटा की जांच चलती रही। कोर्ट में लगातार स्थगन मिलते रहे, जिससे प्रक्रिया लंबी होती गई। बचाव पक्ष ने FIR को quash करने, आरोप हटवाने और प्रक्रिया पर आपत्ति जैसी रणनीतियों का उपयोग किया। CBI और ED दोनों इस मामले में शामिल हैं, इस वजह से जांच मल्टी-लेयर्ड हो गई। राजनीति की संवेदनशीलता के कारण भी अदालतें अत्यधिक सावधानी से चलती हैं, जिससे प्रक्रिया और धीमी हो जाती है। राजनीतिक प्रभाव की बात करें तो यह मामला लालू परिवार के लिए गंभीर खतरे के रूप में खड़ा है, क्योंकि लालू पहले ही चारा घोटाले में दोषी ठहराए जा चुके हैं। इस मामले में पूरा परिवार आरोपी है, और बिहार की राजनीति में यह मुद्दा बेहद संवेदनशील बन चुका है। विधानसभा चुनावों से ठीक पहले यह मामला और भी बड़ा मुद्दा बन गया है। विपक्ष इसे लालू परिवार की “भ्रष्टाचार परंपरा” बताता है। अगर दोष साबित होता है, तो 7 साल तक की सजा संभव है, जिससे उनकी राजनीतिक विरासत और पार्टी दोनों को बड़ा नुकसान हो सकता है। “लैंड-फॉर-जॉब” सिर्फ एक घोटाला नहीं, बल्कि यह भारत की न्याय प्रणाली के लंबे रास्ते का उदाहरण बन चुका है। 20 साल बाद भी सवाल वहीं खड़े हैं क्या यह घोटाला था? क्या यह राजनीतिक बदले की कार्रवाई है? या यह एक सुनियोजित भ्रष्टाचार मॉडल? और क्या अदालत 2025 में कोई निर्णायक फैसला दे पाएगी? फिलहाल, मामला जारी है और देश देख रहा है कि अदालत इस पुराने आरोप पर कब अंतिम मुहर लगाएगी।