ऑस्ट्रेलिया की बादशाहत ढह चुकी थी। भारत ने महिला वनडे इतिहास का सबसे बड़ा सफल चेज़ कर दिखाया। जीत के साथ भारत ने वर्ल्ड कप के फाइनल में एंट्री ली, कहते हैं, क्रिकेट में चमत्कार नहीं होते लेकिन 30 अक्टूबर को नवी मुंबई के डी.वाई. पाटिल स्टेडियम के मैच ने इस बात को झूठा साबित कर दिया। ऑस्ट्रेलिया की टीम, जो सात बार की विश्व चैंपियन थी, सामने थी भारत की टीम, वो टीम जिसे टूर्नामेंट की शुरुआत में लोग “अंडरडॉग” बोल रहे थे। लेकिन बेटियों ने जो किया, उसने दुनिया के क्रिकेट नक्शे पर नई लकीर खींच दी।
विश्वकप की शुरुआत भारत के लिए किसी दुःस्वप्न से कम नहीं थी। तीन मैच हारकर टीम मुश्किल में थी सोशल मीडिया पर सवाल, एक्सपर्ट्स के ताने और आलोचना का पहाड़। लेकिन तभी कप्तान हरमनप्रीत कौर ने एक मीटिंग में बस इतना कहा था “अब खेल नहीं, जंग होगी… और इस बार कोई पीछे नहीं हटेगा।”
फिर जो हुआ, वो भारतीय क्रिकेट इतिहास की सबसे प्रेरणादायक वापसी थी। भारत ने पाकिस्तान को 92 रनों से धोया, फिर इंग्लैंड को हराया और न्यूजीलैंड के खिलाफ डीएलएस से मिली 53 रनों की जीत ने सेमीफाइनल का टिकट पक्का कर दिया। टीम अब सिर्फ खेल नहीं रही थी वो खुद को साबित कर रही थी। 30 अक्टूबर की शाम। ऑस्ट्रेलिया ने टॉस जीतकर पहले बैटिंग चुनी और Phoebe Litchfield का शतक, Ellyse Perry और Gardner के फिफ्टी। स्कोरबोर्ड पर 338 रन चमक रहे थे। कमेंट्री बॉक्स में सब बोले “इतिहास गवाह है, कोई भी महिला टीम इतना बड़ा लक्ष्य नहीं चेज़ कर पाई।” लेकिन इतिहास ये नहीं जानता था कि जेमिमा रोड्रिग्स नाम की लड़की कलम लेकर आई है, और वो कहानी को फिर से लिखेगी। जब भारत की पारी शुरू हुई, पहले झटके लगे। लेकिन फिर क्रीज़ पर उतरी जेमिमा चेहरा शांत, आंखों में तूफ़ान। हर शॉट मानो जवाब था दुनिया की हर आलोचना का। उनके साथ कप्तान हरमनप्रीत कौर ने 89 रनों की तूफानी पारी खेली। दोनों ने मिलकर रिकॉर्ड चेज़ कर दिखाया 341/5, 9 गेंदें बाकी। नवी मुंबई की रात फट पड़ी तालियों से। पूरा देश अब एक ही सवाल पूछ रहा है “क्या ये बेटियाँ अब वो करेंगे जो मर्दों ने भी नहीं किया विश्वकप घर लाना?” टीम का ड्रेसिंग रूम जोश से भरा है। हरमनप्रीत कह रही हैं, “अभी तो एक कदम बाकी है, और वो कदम इतिहास का होगा।” फाइनल में उनका सामना दक्षिण अफ्रीका से होना है वो भी पहली बार फाइनल में पहुँची टीम। वहीं जेमिमा ने अपनी शतकीय पारी के बाद कहा, “यह जीत सिर्फ हमारी नहीं, हर उस लड़की की है जिसे कभी कहा गया था तुमसे नहीं होगा।” भारत ने महिला वनडे में सबसे बड़ा लक्ष्य (339) चेज़ किया। जेमिमा रोड्रिग्स: 127* सेमीफाइनल में भारत की ओर से सर्वाधिक व्यक्तिगत स्कोर। हरमनप्रीत कौर: 89 (88) कप्तान की निर्णायक भूमिका। ऑस्ट्रेलिया पहली बार महिला वनडे वर्ल्ड कप नॉकआउट में भारत से हारा। और अब फाइनल की घड़ी है, नवी मुंबई तैयार है। सब्सक्राइब करें ग्रेट पोस्ट न्यूज़।
कभी सोचा है अगर उस दिन 1946 में, फैसला कुछ और होता…
अगर कांग्रेस की वोटिंग में मिली बहुमत की राय को मान लिया जाता… तो क्या आज़ादी के बाद भारत का चेहरा कुछ और होता? और इतिहास की किताबों में नेहरू नहीं, “लौहपुरुष” का नाम लिखा होता? क्योंकि रिकॉर्ड तो कहते हैं कांग्रेस की अंदरूनी वोटिंग में अधिकांश प्रांतीय समितियों ने पटेल का नाम आगे बढ़ाया था। फिर सवाल उठता है जब बहुमत पटेल जी के साथ था, तब नेहरू क्यों बने? और क्या ये सब महात्मा गांधी के एक संकेत से बदल गया था? वक्त था ब्रिटिश हुकूमत से आज़ादी का, और सवाल था “आजाद भारत का नेता कौन होगा?” कांग्रेस ने अध्यक्ष पद के लिए नाम मांगे। 15 प्रांतीय कांग्रेस समितियों में से 12 ने सरदार पटेल का नाम भेजा। बाकी कुछ ने पंडित जवाहरलाल नेहरू का। मतलब साफ था पार्टी संगठन का झुकाव पटेल की ओर था। पटेल वो नेता थे जो सादगी में भी लौह पुरुष थे प्रशासनिक फैसलों में कठोर, और जमीनी राजनीति में बेहद प्रभावशाली। वहीं, नेहरू थे करिश्माई, आधुनिक और अंतरराष्ट्रीय छवि वाले। दोनों में फर्क वैसा ही था जैसे लोहा और रेशम एक ठोस, एक मुलायम; एक संगठन का आदमी, दूसरा जनता का चेहरा। फिर गांधीजी बोले “नेहरू ही रहेंगे कांग्रेस अध्यक्ष” अब आता है वो पल, जिसने इतिहास की दिशा तय की। जब नामांकन खत्म हुआ, तो गांधीजी से पूछा गया “आपका सुझाव?” गांधीजी जानते थे कि पटेल को बहुमत मिला है, लेकिन उन्होंने कहा “नेहरू को ये जिम्मेदारी दी जानी चाहिए।” क्यों? क्योंकि गांधीजी ने देखा कि भारत आज़ादी के कगार पर है और ऐसे समय में ज़रूरत है एक ऐसे नेता की, जो न सिर्फ़ देश के भीतर, बल्कि बाहर दुनिया में भी भारत का चेहरा बन सके।
नेहरू वो शख्स थे जो अंग्रेजी में निपुण, पश्चिमी राजनीति को समझने वाले और “युवा भारत” की छवि लिए हुए थे। जब गांधीजी ने इशारा किया, तो पटेल ने बिना विरोध के पीछे हटने का फैसला लिया। इतिहासकार लिखते हैं “अगर सरदार चाहते, तो गांधीजी के खिलाफ जा सकते थे। लेकिन वो पार्टी अनुशासन और गांधीजी की इच्छा के आगे झुक गए।”
नेहरू की पॉलिटिक्स बनाम पटेल की प्रैक्टिकलिटी
नेहरू थे एक visionary आधुनिकता, उद्योग और समाजवाद के पैरोकार। पटेल थे practical जमीनी प्रशासन और संघटन के मसीहा। आज़ादी के बाद यही बात दोनों की भूमिकाओं में दिखी
नेहरू ने भारत की विदेश नीति, उद्योग और शिक्षा की नींव रखी।
पटेल ने देश को एक किया 562 रियासतों को एक झंडे के नीचे लाने का काम किया। इतिहासकार कहते हैं, “अगर नेहरू भारत का चेहरा थे, तो पटेल उसकी हड्डियाँ और रीढ़।” तो क्या गांधीजी ने सही किया या भारत ने एक ‘मजबूत प्रशासक’ खो दिया? यह सवाल आज भी बहस का विषय है। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि गांधीजी ने भावनात्मक फैसला लिया उन्होंने सोचा कि जनता नेहरू को ज़्यादा सहजता से स्वीकारेगी। दूसरों का कहना है कि उन्होंने एक “राजनीतिक सन्तुलन” बनाया एक तरफ़ लौहपुरुष पटेल को गृह मंत्रालय और एकीकरण की ज़िम्मेदारी दी,
और दूसरी तरफ़ नेहरू को प्रधानमंत्री पद, ताकि टकराव न हो।
लेकिन सोचिए अगर पटेल होते तो? क्या कश्मीर का हल अलग होता? क्या चीन की नीति वैसी रहती जैसी नेहरू ने अपनाई? क्या भारत का लोकतंत्र और अधिक सख्त, अनुशासित रूप लेता? इतिहास में “अगर” नहीं होता, पर ये “अगर” आज भी सबसे ज़्यादा परेशान करता है। सबसे बड़ी बात सरदार पटेल ने इस फैसले को न तो अपमान माना, न ही राजनीति का खेल। उन्होंने गांधीजी के कहने पर बिना बहस “Yes” कहा और नेहरू के कैबिनेट में गृह मंत्री बने। उसी पद से उन्होंने रियासतों का एकीकरण किया, जिसके बिना आज भारत 500 टुकड़ों में बंटा होता। उनका एक ही जवाब था “मुझे देश का हित चाहिए, कुर्सी नहीं।” आज, जब हम सरदार वल्लभभाई पटेल की 150वीं जयंती मना रहे हैं, तो ये याद रखना ज़रूरी है कि उन्होंने प्रधानमंत्री की कुर्सी नहीं, बल्कि भारत की एकता को चुना।
उन्होंने सत्ता नहीं, बल्कि राष्ट्र को जोड़ा। और शायद यही वजह है कि नेहरू “प्रधानमंत्री” कहलाए, पर पटेल “भारत के लौहपुरुष” बन गए।