डर की कहानियाँ सिर्फ सिहरन के लिए नहीं होतीं। वे हमें यह दिखाने आती हैं कि इंसान का मन कितना अंधेरा और अधूरा है। भारतीय सिनेमा में 2018 में आई Tumbbad ने यही किया था एक ऐसा हॉरर-फेबल जिसने लालच और अंधेरे को दर्शन की तरह पेश किया। अब गुजराती सिनेमा की फिल्म Vash Level 2 आई है। सवाल यह है क्या यह Tumbbad जैसी दार्शनिक गहराई तक जाती है या सिर्फ आपको थिएटर में चौंकाकर छोड़ देती है? Vash Level 2 का फर्स्ट हॉफ बेहद मजबूत है। यह आपको कहानी में घुसने नहीं देता बल्कि कहानी को आपके भीतर उतार देता है। कैमरे का खेल, बैकग्राउंड स्कोर और अंधेरे का इस्तेमाल फिल्म को एकदम claustrophobic बना देता है।
यहाँ डर किसी CGI भूत से नहीं, बल्कि माहौल से पैदा होता है। बंद दरवाज़े, सन्नाटा, और अचानक से बदलती रोशनी ये सब दर्शक के भीतर असहजता पैदा करते हैं। हालांकि समस्या वहीं से शुरू होती है जहाँ फिल्म को और ऊँचाई पर जाना चाहिए था। इंटरवल के बाद कहानी अपनी रफ्तार खो देती है। कुछ तकनीकी हिस्से जैसे CGI और विज़ुअल इफेक्ट्स, Tumbbad की बारीकी तक नहीं पहुँचते। यहाँ फिल्म डर पैदा तो करती है, पर उस डर को दर्शन में बदलने का साहस नहीं दिखा पाती।
Tumbbad डर से आगे बढ़कर लालच और मिथक की गहराई तक जाता है। हर फ्रेम एक पेंटिंग है, हर दृश्य एक रूपक। दर्शक थिएटर से सिर्फ डरे हुए नहीं बल्कि सवालों में उलझे बाहर निकलते हैं। Vash Level 2, इसके उलट, डर और सिहरन तक सीमित रहती है। इसका फोकस narrative को लंबा खींचने या सामाजिक-दार्शनिक परतें जोड़ने में नहीं है। यह आपको immediate thrill देती है, पर जब लाइट्स ऑन होती हैं तो सवाल अधूरे रह जाते हैं। सरल शब्दों में Tumbbad एक “mythological philosophy in horror” है, जबकि Vash Level 2 एक “supernatural thriller with atmospheric fear” है।
IMDb रेटिंग: 8.1/10 (150+ reviews) और BookMyShow: 8.6/10 (1600+ वोट्स) दर्शक मान रहे हैं कि फिल्म का पहला हिस्सा मास्टरक्लास है, लेकिन दूसरा हिस्सा narrative depth खो देता है। Vash Level 2 गुजराती सिनेमा के लिए बड़ी छलांग है। इसने यह साबित किया कि क्षेत्रीय हॉरर भी राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में आ सकता है। फिल्म ने माहौल और डर को शानदार तरीके से पेश किया है। लेकिन जहाँ इसे Tumbbad जैसी अमरता हासिल करनी थी, वहाँ यह अटक जाती है।बाकी चैनल तो आपको वही दिखाएंगे जो सब जगह मिलेगा… लेकिन यहां मिलेगा आपको वो जो कहीं और नहीं। तो, अगर भीड़ से हटकर सोचना है तो चैनल सब्सक्राइब कर डालिए और जुड़े रहिए हमसे
जम्मू–कश्मीर की वादियां… जहां कभी बर्फ़ की चादर और झरनों की आवाज़ शांति का पैग़ाम देती थी, आज वहीं चीखें, रोना और तबाही की गूँज है। पिछले एक हफ़्ते से कुदरत ने जैसे कश्मीर की रगों को हिला दिया है। पहाड़ खिसक रहे हैं, सड़कें टूट रही हैं और मासूम ज़िंदगियाँ मलबे में दब रही हैं। 26 अगस्त की सुबह का मंजर आज भी हर किसी को दहला देता है। माता वैष्णो देवी के पवित्र रास्ते पर श्रद्धालु दर्शन के लिए निकले थे। उनके मन में भक्ति थी, उम्मीद थी, लेकिन पहाड़ों ने अचानक धोखा दे दिया। भूस्खलन हुआ और देखते-देखते पूरा रास्ता मलबे में तब्दील हो गया। चारों तरफ़ भगदड़, चीखें और सन्नाटा… और उस मलबे में दबकर 30 से ज़्यादा ज़िंदगियाँ ख़ामोश हो गईं। मंदिर की घंटियां बजती रहीं, लेकिन जिनके घरों में चिराग़ बुझ गए, उनके लिए ये आपदा हमेशा के लिए काली रात बन गई। लोग अभी इस सदमे से बाहर भी नहीं आए थे कि 30 अगस्त ने एक और त्रासदी दी। रीासी और रामबन ज़िलों में क्लाउडबर्स्ट और भूस्खलन ने तबाही मचा दी। इस बार 11 लोगों की मौत हुई, जिनमें एक ही परिवार के सात लोग शामिल थे। सोचिए, एक ही घर की हंसी, एक ही छत का शोरगुल, कुछ ही मिनटों में खामोशी में बदल गया। जिन गलियों में बच्चों की किलकारियां गूंजती थीं, आज वहां सिर्फ़ मातम पसरा है। जम्मू–कश्मीर, जिसे हम स्वर्ग कहते हैं, वहाँ अब सवाल यह है कि ये स्वर्ग किस ओर जा रहा है? हर साल मानसून आता है, बारिश होती है और पहाड़ टूटते हैं। नेशनल हाइवे-44, जो जम्मू से श्रीनगर को जोड़ता है, बार-बार बंद होता है। यात्रियों को घंटों, कभी-कभी दिनों तक फँसे रहना पड़ता है। प्रशासन की तरफ़ से बस एक ही संदेश आता है—“कटऑफ़ टाइमिंग का पालन करें, सावधान रहें।” लेकिन सवाल ये है कि क्या सावधान रहने से ज़िंदगियाँ बच जाएँगी, जब पहाड़ ही टूटकर सिर पर आ गिरें? मौसम विभाग ने हफ़्ते भर पहले ही अलर्ट जारी किया था। कहा गया था कि 27 से 30 अगस्त के बीच भारी बारिश होगी, क्लाउडबर्स्ट और भूस्खलन का खतरा है। चेतावनी थी, लेकिन तैयारी कहाँ थी? अगर हर साल अलर्ट के बाद भी वही कहानी दोहराई जाती है, तो ये चेतावनियाँ महज़ औपचारिकता बनकर रह जाती हैं। असलियत ये है कि कुदरत को दोष देना आसान है, लेकिन असली दोष इंसानी लालच का है। जम्मू–कश्मीर की पहाड़ियां नाज़ुक हैं। लेकिन बेतरतीब सड़क चौड़ीकरण, टनलिंग, जंगलों की अंधाधुंध कटाई और ढलानों को बिना सोचे-समझे काटना इसने इन पहाड़ों की जान निकाल दी है। जब बादल फटते हैं तो सिर्फ़ पानी नहीं गिरता, बल्कि हमारी नीतियों की पोल भी खुल जाती है। हर साल लाशें गिनने की आदत बन चुकी है। राहत पैकेज की घोषणाएं होती हैं, जांच समितियाँ बनती हैं, तस्वीरें खिंचती हैं और फिर सब कुछ वैसा ही चलता रहता है। लेकिन क्या यही राजनीति और प्रशासन का काम है? क्या जम्मू–कश्मीर की नाज़ुक वादियों को बचाने का कोई ठोस रोडमैप कभी बनेगा? या फिर हम हर साल सिर्फ़ आँकड़े जोड़ते रहेंगे—इस साल 30, अगले साल 40…? ये सवाल सिर्फ़ जम्मू–कश्मीर के पहाड़ों का नहीं, बल्कि हमारी सोच का भी है। विकास के नाम पर जब-जब हमने कुदरत के साथ छेड़छाड़ की है, तब-तब उसने हमें सबक सिखाया है। लेकिन क्या हम ये सबक वाक़ई सीख रहे हैं? या फिर अगली बारिश तक इन आवाज़ों को भूल जाएँगे। ऐसे ही दमदार न्यूज के लिए लाइक और सब्सक्राइब करके हमसे जुड़े रहे।
इस हफ्ते भारत की राजनीति और अर्थव्यवस्था दोनों में भूचाल आया। एक तरफ़ अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत पर 50% टैरीफ ठोक दिया, जिससे रुपया धड़ाम होकर 88 के पार चला गया। एक्सपोर्ट सेक्टर हिल गया और रोजगार पर तलवार लटक गई। वहीं दूसरी तरफ़ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 7 साल बाद चीन दौरे का ऐलान किया जहाँ वे SCO समिट में हिस्सा लेने जा रहे हैं। यानि एक तरफ़ अमेरिका ने झटका दिया, दूसरी तरफ़ चीन ने दोस्ती का हाथ बढ़ाया।
इस फैसले का सबसे बड़ा असर रुपये पर पड़ा। डॉलर के मुकाबले रुपया गिरकर 88.29 तक पहुँच गया, जो अब तक का सबसे निचला स्तर है। थोड़ी रिकवरी जरूर हुई लेकिन 88.12 पर भी रुपया असहज बना रहा। अर्थशास्त्रियों का मानना है कि इस झटके से भारत की GDP ग्रोथ 0.6% से 0.8% तक गिर सकती है। यह गिरावट सिर्फ आंकड़ों में नहीं, बल्कि आम आदमी की जेब और रोज़गार पर सीधा असर डाल सकती है।
ट्रंप के टैरीफ से सबसे ज्यादा चोट टेक्सटाइल और सीफूड सेक्टर को लगी है। टेक्सटाइल इंडस्ट्री, जो भारत के निर्यात की रीढ़ है, उसके लगभग 70% एक्सपोर्ट प्रभावित हुए हैं। सूरत और लुधियाना के बुनकरों के सामने ऑर्डर कैंसिल होने का खतरा खड़ा हो गया है। उधर ओडिशा के सीफूड सेक्टर में 16 लाख से ज्यादा लोगों की रोज़ी-रोटी पर संकट आ गया है। इनमें ज्यादातर महिलाएं और गरीब तबके के मजदूर हैं। सरकार ने राहत के लिए कॉटन पर 11% आयात ड्यूटी हटा दी है, लेकिन यह कदम सिर्फ अस्थायी सहारा है।
जब अमेरिका ने झटका दिया, तो भारत ने पूर्व की ओर नजरें मोड़ लीं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ऐलान किया कि वे 31 अगस्त से शुरू होने वाले SCO समिट में चीन जा रहे हैं। यह उनका 7 साल बाद का पहला चीन दौरा होगा। चीन ने भी इस मौके पर दोस्ती का हाथ बढ़ाया और कहा कि भारत और चीन को “Correct Strategic Understanding” की ज़रूरत है। चीन ने ट्रंप के टैरीफ के खिलाफ भारत का समर्थन भी जताया है। सवाल यह है कि क्या यह दोस्ती स्थायी होगी या सिर्फ अमेरिका को चिढ़ाने का खेल है?
भारत आज दो पाटों के बीच फंसा है। एक तरफ अमेरिका है, जिसने कभी भारत को “सबसे बड़ा दोस्त” कहा था और अब ट्रेड वॉर छेड़ दिया है। दूसरी तरफ चीन है, जिसके साथ भारत का सीमा विवाद और अविश्वास की लंबी कहानी है, लेकिन मौजूदा वक्त में वह दोस्ती की पेशकश कर रहा है। भारत की विदेश नीति अब जुगलबंदी पर टिकी लगती है न पूरी तरह अमेरिका से दूरी, न पूरी तरह चीन से नज़दीकी। यह नए जमाने का “Non-Aligned Movement 2.0” है, फर्क बस इतना कि अब यह सीधे अर्थव्यवस्था और रोजगार से जुड़ा हुआ है।
अब सवाल जनता का है। एक्सपोर्टर पूछ रहे हैं “हमारा माल कौन खरीदेगा?” मजदूर पूछ रहे हैं “हमारी नौकरी कितने दिन सुरक्षित है?” आम आदमी पूछ रहा है “रुपये की दुर्गति का असर मेरी थाली तक क्यों पहुँच रहा है?” और राजनीति पूछ रही है “क्या मोदी का चीन संग कदम अमेरिका संग रिश्तों की बलि चढ़ाएगा?” यह हफ्ता साफ़ कर गया कि राजनीति और अर्थव्यवस्था अब अलग-अलग नहीं रहीं। ट्रंप का टैरीफ भारत की जेब पर हमला है और मोदी की चीन यात्रा उस हमले का जवाब। लेकिन असली कसौटी आने वाले दिनों में होगी क्या भारत इस दोतरफा दबाव को झेल पाएगा? क्या चीन संग दोस्ती भारत की मजबूती बनेगी या अमेरिका से रिश्तों की कीमत पर नया संकट खड़ा करेगी? फिलहाल इतना तय है कि यह हफ्ता भारत के लिए सिर्फ पॉलिटिक्स नहीं बल्कि इकोनॉमिक डिप्लोमेसी का महाभारत साबित हुआ। अपडेट के लिए चैनल को सब्सक्राइब करे और लाइक करे ।