भोपाल गैस त्रासदी के 40 वर्ष बाद भी जहरीले कचरे और कानूनी कार्रवाई से जुड़े मुद्दे पूरी तरह समाप्त नहीं हुए हैं। जनवरी 2025 में सरकार ने घोषणा की कि यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री परिसर में वर्षों से जमा “कई सौ टन विषाक्त कचरा” हटाकर सुरक्षित सुविधाओं में incinerate किया गया है। यह वह केमिकल-वेस्ट था जो MIC रिसाव के बाद प्लांट में बंद पड़ा रहा और दशकों तक पर्यावरणीय चिंता का केंद्र बना रहा। हालांकि स्वतंत्र वैज्ञानिकों और पर्यावरण समूहों का कहना है कि ज़मीन के नीचे मौजूद रासायनिक अवशेषों का स्तर अभी भी पूर्ण रूप से “safe category” में नहीं आया है। भोपाल परिसर के आसपास कई इलाकों में ग्राउंडवॉटर मॉनिटरिंग के दौरान permissible limit से अधिक कार्बनिक रसायनों के निशान दर्ज किए गए, जिससे यह स्पष्ट होता है कि पर्यावरणीय सफाई एक अभी भी चल रही प्रक्रिया है। 2025 में मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने इस मामले के लंबित आपराधिक मुकदमों पर भी विशेष ध्यान दिया। अदालत ने ट्रायल कोर्ट को आदेश दिया कि वह हर महीने केस की प्रगति रिपोर्ट प्रस्तुत करे। इससे यह तथ्य उजागर होता है कि 40 वर्षों के बाद भी कई अभियुक्तों के खिलाफ कानूनी प्रक्रिया लंबित है, विशेषकर वे मामले जिनमें लापरवाही, सुरक्षा उल्लंघन और प्रबंधन विफलता जैसे आरोप शामिल थे। यह भी ध्यान देने योग्य है कि वॉरेन एंडरसन, जो UCC के शीर्ष अधिकारी थे, उनके खिलाफ जारी मुकदमे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कभी पूरी तरह लागू नहीं हो पाए और मामला उनकी मृत्यु (2014) के बाद स्वतः समाप्त हो गया। सरकारी रिकॉर्ड के अनुसार 31 जुलाई 2022 तक मूल मुआवजा वितरण में ₹1,549 करोड़ पीड़ितों को दिए जा चुके थे, जिनमें मृतकों के परिवार, स्थायी विकलांगता वाले लोग और गंभीर रूप से प्रभावित नागरिक शामिल थे। इसके अलावा, यथानुपातिक (pro-rata) मुआवजे के रूप में ₹1,517 करोड़ अतिरिक्त रूप से 5,63,091 दावेदारों को दिए गए। पीड़ित संगठनों का तर्क है कि UCC द्वारा भुगतान किए गए $470 मिलियन (1989 settlement) आधुनिक पैमाने पर बहुत कम हैं और वास्तविक मानव/पर्यावरणीय क्षति की तुलना में यह न्यायसंगत नहीं है। इसी कारण 2025 में भी अतिरिक्त मुआवजे की याचिकाएँ सुप्रीम कोर्ट और अंतरराष्ट्रीय संगठनों में सक्रिय हैं। ICMR (Indian Council of Medical Research) और अन्य स्वतंत्र चिकित्सा अध्ययनों ने 2025 तक यह पुष्टि की कि गैस रिसाव का स्वास्थ्य प्रभाव अब भी खत्म नहीं हुआ है। हजारों लोग आज भी chronic respiratory diseases, COPD, नेत्र-क्षति, किडनी और लीवर विकार, न्यूरोलॉजिकल समस्याओं, और skin-disorders से लगातार प्रभावित हैं। MIC (Methyl Isocyanate) और उसके उप-रसायनों के प्रभाव को लेकर कई longitudinal studies ने तीसरी पीढ़ी तक health-impact दर्ज किया है। कई जन्मजात विकृतियाँ, विकास से जुड़ी समस्याएँ और low-immunity वाले बच्चे उन इलाकों में पाए गए जहाँ प्रभावित परिवार रहते हैं। ICMR के नवीनतम डेटा में यह बात भी महत्वपूर्ण है कि जल, हवा और मिट्टी में chemical-exposure के कारण “secondary health impact” आज भी दर्ज किया जा रहा है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भोपाल गैस त्रासदी को दुनिया की सबसे भीषण औद्योगिक दुर्घटना के रूप में मान्यता प्राप्त है। विश्व स्वास्थ्य संगठन, ह्यूमन राइट्स वॉच, संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम और पर्यावरण विज्ञान से जुड़े वैश्विक विश्वविद्यालय इसे “benchmark disaster case” के रूप में पढ़ाते हैं। कई देशों के सुरक्षा नियम जैसे Chemical Safety Protocol, Hazardous Systems Regulation और Emergency Response Codes भोपाल हादसे के बाद संशोधित किए गए। विभिन्न विदेशी समीक्षाओं में इसे industrial negligence, regulatory failure, inadequate safety design और corporate liability failure का सबसे स्पष्ट उदाहरण माना जाता है। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्टों में इसे “Global Industrial Catastrophe” की श्रेणी में रखा गया है, जो कि चेर्नोबिल और फुकुशिमा जैसी घटनाओं के समान स्तर की औद्योगिक विफलता मानी जाती है। आइए जानते है कैसे हुआ भोपाल ट्रेजेडी 2–3 दिसंबर 1984 की रात यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड (UCIL), भोपाल में कीटनाशक उत्पादन संयंत्र का टैंक E-610, जिसमें MIC (Methyl Isocyanate) भरा था, अनियंत्रित रासायनिक प्रतिक्रिया के कारण गर्म होना शुरू हुआ। समय के साथ MIC में पानी प्रवेश कर गया, जबकि टैंक का तापमान नियंत्रित करने वाली refrigeration unit महीनों पहले बंद कर दी गई थी। इसके अलावा, vent gas scrubber — जो जहरीले गैसों को neutralize करता है रिसाव की रात बंद था या पूर्ण क्षमता पर काम नहीं कर रहा था। flare tower, जो गैस को जलाकर समाप्त करने का अंतिम सुरक्षा साधन था, वह भी निष्क्रिय पड़ा था। इन सभी कारणों से MIC के भीतर तीव्र दबाव बना और टैंक का safety-valve खुल गया, जिससे लगभग 40–45 टन MIC हवा में फैल गया।
गैस अत्यंत तेज़ी से हवा में घुलकर निम्न-स्तर के वातावरण में टैक्सिक क्लाउड बन गई। MIC का रासायनिक स्वरूप ऐसा है कि यह नमी से मिलकर फेफड़ों, आँखों और आंतरिक ऊतकों को तुरंत क्षति पहुँचाता है। इसी कारण प्रभावित लोगों में तत्काल साँस बंद होना, फेफड़ों का क्षरण, दृश्य-क्षति और रासायनिक दग्धता देखी गई।
सरकारी आंकड़ों में 3,787 लोगों की तत्काल मृत्यु दर्ज की गई, जबकि स्वतंत्र स्वास्थ्य विशेषज्ञों और अंतरराष्ट्रीय मीडिया रिपोर्ट्स में पहले दो सप्ताह के भीतर 8,000 से अधिक मौतें अनुमानित की गईं। दीर्घकाल में हुई मौतों की संयुक्त गणना 15,000 से 20,000+ के बीच मानी जाती है। भारत सरकार के 2006 के शपथपत्र अनुसार 5,58,125 लोग सीधे प्रभावित हुए, और लगभग 3,900 लोगों में स्थायी विकलांगता या गंभीर स्वास्थ्य क्षति पाई गई। 2025 तक कचरा हटाया गया, पर पर्यावरणीय सफाई पूरी नहीं। 40 साल बाद भी groundwater contamination मौजूद। आपराधिक मुकदमे अभी भी सक्रिय, कई जिम्मेदार अब तक दंडित नहीं। कुल मुआवजा + अतिरिक्त मुआवजा ₹3,066 करोड़, पर पीड़ित इसे अपर्याप्त मानते हैं।15,000–20,000+ दीर्घकालीन मौतें, 5.5 लाख प्रभावित। विदेशों में इसे दुनिया की सबसे खतरनाक industrial disaster के रूप में पढ़ाया जाता है। MIC रिसाव के पीछे सुरक्षा प्रणाली की विफलता, खराब उपकरण, cost-cutting और निगरानी की कमी को जिम्मेदार माना गया।
कुछ अजीब हो रहा है इंटरनेट पर। सालों से जिस पीढ़ी को बोल्ड, लाउड, हाइपर-ऑनलाइन कहा जाता था वही जेन जी अब सोशल मीडिया पर चुप्पी ओढ़कर बैठ गई है। हाँ, वही जेन जी जो हर चीज़ पर स्टोरी, हर आउटिंग पर रील और हर कॉफी पर फोटो डालती थी अब उनके फीड उतने ही खाली हैं जितना राजनीति में नैतिकता का कॉलम। इस नए ट्रेंड का नाम है Posting Zero। मतलब? ना फोटो, ना रील, ना अपडेट, ना हैशटैग फुल चुप... लेकिन ऑनलाइन, स्क्रीन के ठीक पीछे मौजूद। ये कैसा खेल है? पोस्टिंग बंद, पर इंटरनेट चालू?
आख़िर ये हो क्या रहा है? बड़ी कंपनियों के नए आंकड़े चौंकाते हैं 43% लोग अब सोशल मीडिया पर केवल देखना/स्क्रॉल करना पसंद करते हैं मतलब पोस्ट, लाइक, कमेंट बंद। 41% लोग 2025 में सोशल मीडिया इस्तेमाल कम कर रहे हैं यानी “अदृश्य-यूजर” तेज़ी से बढ़ रहे हैं। 18% यूजर्स कम से कम एक प्लेटफॉर्म छोड़ चुके हैं जेन-जी का बड़ा हिस्सा “पब्लिक फीड छोड़कर प्राइवेट/क्लोज़ फ्रेंड्स/अल्टरनेट अकाउंट” पर शिफ्ट हो रहा है। अमेरिका-यूरोप से शुरू हुआ ये मौन-आंदोलन भारत में भी लहर की तरह फैल रहा है। ये कोई छोटा ट्रेंड नहीं है।
जेन-जी की चुप्पी वायरल क्यों?
कहते हैं कि चुप्पी भी कभी-कभी बहुत तेज़ बोलती है। जीरो पोस्टिंग के कारण कई हैं पहला है डिजिटल थकान दिनभर नोटिफिकेशन, रात में डोपामिन की लत, और लाइक-कमेंट के रिकवरी मिशन ने दिमाग़ हिला दिया है। जेन-जी अब अच्छे से समझने लगी है कि Instagram की टाइमलाइन एक थियेटर है और सब लोग परफॉर्मर बनने के लिए मजबूर हैं। दूसरा है प्राइवेसी की चिंता: Gen जी समझ रही है कि इंटरनेट कभी भूलता नहीं। एक गलत पोस्ट, एक गलत फोटो, एक गलत मूड सारी उम्र का बोझ बन जाता है। तो उन्होंने कहा “Public feed में नहीं डालेंगे, Close Friends में डालेंगे। या शायद वहीं भी नहीं।” तीसरा है लाइक्स का बोझ, लाइक्स के बिना जी नहीं पाती थी दुनिया। अब उसी दुनिया को लाइक्स से एलर्जी हो गई है।लोग कह रहे हैं “लाइक दे भी देते हैं, पर दिल से नहीं। तो मैं पोस्ट क्यों करूँ?” चौथा है असली ज़िंदगी की खोज, नौजवानों को लगने लगा है कि जिन दोस्तों के साथ वे दिनभर स्टोरी शेयर करते हैं, उन्हें असल में जानते भी नहीं। सो उन्होंने ऑनलाइन की चकाचौंध से निकलकर ऑफ़लाइन की सच्चाई की तरफ़ देखना शुरू कर दिया है। और सच कहें तो यह उनकी सबसे स्मार्ट मूव है।
क्रिएटर्स क्या कर रहे हैं?
क्या वे भी Posting Zero कर रहे हैं? सादा जवाब नहीं। क्योंकि क्रिएटर कंटेंट रोकेंगे, तो रोटी रुकेगी। हाँ, छोटे क्रिएटर्स में कुछ लोग ब्रेक ले रहे हैं, बर्नआउट झेल रहे हैं, पर mass-scale पर क्रिएटर्स Posting Zero नहीं कर रहे। क्रिएटर्स तो उल्टा इस चुप्पी का फ़ायदा उठा रहे हैं क्योंकि अब कम शोर में अच्छी चीज़ ज्यादा सुनाई देती है। तो क्या Posting Zero एक विद्रोह है? हाँ चुप्पी वाला विद्रोह Gen- जी दुनिया को कुछ बता रही है “हम दिखावे से ऊब गए हैं। हम comparison culture के गुलाम नहीं बनना चाहते। ऐसे ही इंटरेस्टिंग खबरों के लिए सब्सक्राइब करें ग्रेट पोस्ट न्यूज़।