ज़िंदगी और सिनेमा में एक गहरी समानता है दोनों ही सब्र का इम्तिहान लेते हैं। कभी कोई उभरता सितारा पलभर में चमक जाता है, और कभी कोई सुपरस्टार दशकों तक इंतज़ार करता है उस ‘एक’ मान्यता का, जो उसके नाम के साथ हमेशा जुड़ जाती है। यही कहानी है शाहरुख़ खान की। तीन दशक से हिंदी सिनेमा के "किंग खान" कहलाने वाले शाहरुख़ को आखिरकार उनका पहला नेशनल अवॉर्ड मिला 71वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में जवान के लिए बेस्ट एक्टर। यह वही SRK हैं, जिन्होंने करोड़ों दिलों को अपनी मोहब्बत और मुस्कान से जीत लिया, लेकिन राष्ट्रीय पुरस्कार की सूची में कभी जगह नहीं बना पाए। सवाल सीधा है इतनी देर क्यों लगी?
दरअसल, नेशनल अवॉर्ड्स का अपना तर्क और अपनी परंपरा रही है। ज्यूरी हमेशा कमर्शियल सफलता के बजाय "आर्ट" और "क्राफ्ट" को महत्व देती रही। SRK की पूरी स्टारडम, उनकी लोकप्रियता, उनकी हिट्स ये सब जनता की तालियों से मापे गए, लेकिन ज्यूरी की कसौटी पर अक्सर हल्के पड़ते रहे। शायद यही कारण है कि स्वदेश से लेकर चक दे इंडिया तक की परफॉर्मेंस नेशनल अवॉर्ड तक नहीं पहुँच सकीं।
फिर आया जवान एक ऐसी फिल्म जिसने न सिर्फ बॉक्स ऑफिस तोड़ा, बल्कि सामाजिक संदेश, राजनीतिक रूपक और मनोरंजन का अनोखा संगम भी पेश किया। शाहरुख़ ने यहाँ सिर्फ हीरो का किरदार नहीं निभाया, बल्कि अपनी खुद की इमेज को डिकंस्ट्रक्ट करके एक नया रंग दिखाया बुज़ुर्ग पिता, जवान बेटा, और बीच-बीच में जनता के सपनों का चेहरा। शायद ज्यूरी को यही ईमानदारी और प्रयोगशीलता भा गई। अब बात करते हैं उस चेहरे की, जिसे भारतीय सिनेमा का “साम्राट” कहा जाता है मोहन्लाल। इस साल उन्हें मिला दादा साहब फाल्के पुरस्कार, यानी भारतीय फिल्मों का सर्वोच्च सम्मान। यह पुरस्कार केवल अभिनय के लिए नहीं, बल्कि पूरे जीवन के योगदान के लिए दिया जाता है। मोहन्लाल का सफर सिर्फ मलयालम सिनेमा तक सीमित नहीं रहा। उन्होंने अपने चार दशकों के करियर में 300 से ज्यादा फिल्में कीं, और हर किरदार को ऐसा जीया कि दर्शक भूल गए वे स्क्रीन पर एक्टर को देख रहे हैं। एक तरफ़ वे सहज कॉमेडियन बन जाते हैं, तो दूसरी तरफ़ जटिल मनोवैज्ञानिक भूमिकाओं में भी उतर जाते हैं। उनकी कला, उनकी निरंतरता और उनके प्रयोग ही उन्हें भारतीय सिनेमा का एक ‘पूर्ण पुरुष’ बनाते हैं।
यह भी दिलचस्प है कि 65 साल की उम्र में मोहनलाल इस पुरस्कार के सबसे कम उम्र के विजेता बने। यह न केवल उनकी प्रतिभा की मान्यता है, बल्कि उस पूरी धारा का प्रतिनिधित्व भी है, जिसे हम रीजनल सिनेमा कहते हैं। तो मंच पर तस्वीर यह बनी एक तरफ़ शाहरुख़ खान, जिन्हें आखिरकार वो मान्यता मिली जिसके लिए उनके प्रशंसक बरसों से तरस रहे थे; और दूसरी तरफ़ मोहनलाल, जिनका योगदान इतना विराट है कि उन्हें अब और टालना संभव नहीं था। ऐसे ही लेटेस्ट खबरों के लिए सब्सक्राइब करें ग्रेट पोस्ट न्यूज़।
24 सितंबर 2025 को लेह-लद्दाख में हालात अचानक गरमा गए। सुबह से ही सड़कों पर भीड़ जुटनी शुरू हुई और हजारों लोग राज्य का दर्जा और छठी अनुसूची (Sixth Schedule) में शामिल किए जाने की मांग लेकर उतर आए। यह प्रदर्शन पहले शांतिपूर्ण रैली के तौर पर शुरू हुआ, लेकिन दोपहर तक स्थिति बिगड़ गई। पत्थरबाज़ी और पुलिस से झड़प की खबरें आईं। रिपोर्ट्स के मुताबिक़, बीजेपी का स्थानीय दफ़्तर और एक पुलिस वाहन आग के हवाले कर दिया गया। पुलिस को भीड़ को तितर-बितर करने के लिए आँसू गैस और लाठीचार्ज करना पड़ा।सोशल मीडिया पर इस आंदोलन को ‘जैन जी प्रदर्शन’ या ‘Generation J’ नाम से भी ट्रेंड किया जा रहा है, हालांकि आधिकारिक रिपोर्ट्स इसे लद्दाख की राज्य और संवैधानिक अधिकारों की लड़ाई ही बता रही हैं।
क्या है आंदोलन की जड़ें और मुख्य मांगें
लद्दाख के लोग लंबे समय से अपने राजनीतिक और संवैधानिक अधिकारों की मांग कर रहे हैं। सबसे पहले पूर्ण राज्य का दर्जा (Full Statehood): 2019 में लद्दाख को जम्मू-कश्मीर से अलग करके केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया था। तब से यहाँ के लोग मानते हैं कि दिल्ली की अफसरशाही उनके स्थानीय मुद्दों को समझ नहीं पा रही। दूसरा है छठी अनुसूची यानी (Sixth Schedule): यह संवैधानिक प्रावधान आदिवासी और पहाड़ी इलाकों को ज़मीन और संसाधनों पर विशेष सुरक्षा देता है। कुछ यूज़र्स इसे ‘जैन जी आंदोलन’ कहकर पोस्ट कर रहे हैं, जिसकी तुलना नेपाल में हुए Generation Z प्रोटेस्ट से की जा रही है। लेकिन ज़मीनी सच्चाई में यह आंदोलन लद्दाख के अधिकारों पर केंद्रित है।” लद्दाखियों का डर है कि बिना इस सुरक्षा के उनकी भूमि, रोजगार और सांस्कृतिक पहचान खतरे में पड़ जाएगी। और आखिरी है राजनीतिक प्रतिनिधित्व: प्रदर्शनकारियों का कहना है कि संसद और विधानसभाओं में लद्दाख की आवाज़ बहुत कमजोर है। वे मजबूत प्रतिनिधित्व चाहते हैं। इस आंदोलन को गति देने में कई संगठन और नेता सामने आए हैं। सोनम वांगचुक, पर्यावरणविद और सामाजिक कार्यकर्ता, इस लड़ाई का प्रमुख चेहरा हैं। उन्होंने इस साल 35 दिन का भूख हड़ताल कर लद्दाख की समस्या को राष्ट्रीय मंच पर उठाया था। Leh Apex Body (LAB) और Kargil Democratic Alliance (KDA), दो प्रमुख संगठन हैं जो लंबे समय से केंद्र सरकार से बातचीत कर रहे हैं और सड़कों पर भी सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। इसके अलावा स्थानीय छात्र संगठन और युवा समूह इस आंदोलन को बड़े पैमाने पर चला रहे हैं। केंद्र और लद्दाख के प्रतिनिधियों के बीच अब तक कई दौर की वार्ता हो चुकी है। अगली बैठक 6 अक्टूबर 2025 को तय की गई है। हालांकि, स्थानीय लोगों का मानना है कि बातचीत से अब तक कोई ठोस समाधान नहीं निकला है। प्रदर्शनकारियों का आरोप है कि केंद्र सिर्फ आश्वासन दे रहा है, जबकि ज़मीन पर कोई बदलाव नहीं दिख रहा।
आज की स्थिति यह है कि लेह में पुलिस और प्रशासन हाई-अलर्ट पर हैं। इंटरनेट सेवाओं पर आंशिक रोक लगाई गई है। सैकड़ों लोग हिरासत में लिए गए हैं और दर्जनों घायल हुए हैं। हालात नियंत्रण में हैं, लेकिन तनाव अभी भी बरकरार है। ऐसे ही लेटेस्ट खबरों के लिए सब्सक्राइब करें ग्रेट पोस्ट न्यूज़।