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Breaking News 24 November 2025

1.)क्या दिल्ली में प्रदूषण के नाम पर नक्सली विचारधारा को उठाने की कोशिश की गई?

राजधानी में वायु गुणवत्ता इस कदर गिर चुकी है कि विशेषज्ञ इसे ‘रेड ज़ोन’ के बजाय ‘हेल्थ इमरजेंसी ज़ोन’ कहना अधिक उचित मान रहे हैं। इसी दमघोंटू माहौल के खिलाफ रविवार की शाम जब इंडिया गेट के C-Hexagon क्षेत्र में नागरिकों का एक शांतिपूर्ण प्रदर्शन शुरू हुआ, तो उम्मीद थी कि यह राजधानी की हवा पर सरकार, एजेंसियों और सिस्टम को एक बार फिर कठघरे में खड़ा करेगा। पैरेंट्स अपने बच्चों की मेडिकल रिपोर्ट लेकर पहुँचे थे, छात्र पोस्टर उठाए खड़े थे, एनवायरनमेंटल ग्रुप “स्वच्छ हवा या स्वच्छ राजनीति?” के सवाल उछाल रहे थे। यह भीड़ थकी हुई, नाराज़, और फिर भी उम्मीद से भरी दिल्ली से सिर्फ एक चीज़ चाहती थी सांस लेने का अधिकार। लेकिन हर आंदोलन का एक दूसरा चेहरा भी होता है जो अचानक भीड़ के बीच से उठकर सेंट्रल स्टेज कब्ज़ा कर लेता है। और ठीक इंडिया गेट की उन पीली रोशनियों के नीचे वही हुआ, जिसकी कल्पना तक आयोजकों ने नहीं की थी। शांतिपूर्ण प्रदर्शन के बीच अचानक एक छोटा, संगठित और पूरी तरह से अप्रत्याशित समूह सामने आया हाथों में माओवादी कमांडर माड़वी हिडमा के पोस्टर, उनकी फोटो वाली तख्तियाँ, और ऐसी जोरदार नारेबाज़ी कि पॉल्यूशन का मुद्दा कुछ ही मिनटों में पूरी तरह हाशिये पर चला गया।

“Hidma amar rahe!”
“Kitne Hidma maroge, har ghar se Hidma niklega!”

ये नारे ऐसे गूँजे जैसे किसी ने हवा में माचिस जला दी हो।

हिडमा वो नाम जो छत्तीसगढ़, दंतेवाड़ा और बीजापुर की खून से लथपथ फाइलों में दर्ज है,जो कई बड़े नक्सली हमलों का मास्टरमाइंड था, जिसके सिर पर करोड़ों का इनाम था,और जो हाल ही में एक एनकाउंटर में मारा गया। उसकी मौत के बाद उसके समर्थन में यह नारे दिल्ली के दिल इंडिया गेट पर लगना, अपने-आप में एक राजनीतिक विस्फोट था। इसी पल से इस पूरे प्रदर्शन की दिशा बदल गई। हवा, प्रदूषण, बच्चों की सेहत सब पीछे छूट गए। स्पॉटलाइट अब सिर्फ एक चीज़ पर थी क्या दिल्ली में प्रदूषण के नाम पर नक्सली विचारधारा का झंडा उठाने की कोशिश की गई? पुलिस के मुताबिक हालात तब बिगड़े जब प्रदर्शनकारियों से सड़क खाली करने का आग्रह किया गया, लेकिन भीड़ का एक हिस्सा बैठा रहा। कैमरों के सामने, इंडिया गेट की ट्रैफिक रोशनी की चमक में, पुलिस और प्रदर्शनकारी आमने-सामने खड़े दिखाई दिए। तनाव बढ़ता गया और फिर वो हुआ जो दिल्ली के किसी नागरिक आंदोलन में पहले कभी नहीं देखा गया कुछ लोगों ने पुलिस पर pepper spray / chilli spray का इस्तेमाल किया। कई पुलिसकर्मी घायल हुए, दो को तुरंत अस्पताल ले जाना पड़ा। यह एक ऐसा दृश्य था जिसे देखकर समझ आया कि भीड़ अब सिर्फ “क्लीन एयर” की आवाज़ नहीं रही, इसमें अब किसी और एजेंडा की छाया शामिल हो चुकी है। कुछ ही मिनटों में तस्वीर बदल गई वर्दियाँ हरकत में आईं, हिस्से की भीड़ तितर-बितर होने लगी और दिल्ली पुलिस ने 23 लोगों को हिरासत में ले लिया। उन पर लगे आरोप सिर्फ धरना देने तक सीमित नहीं थे, सरकारी काम में बाधा, रोड ब्लॉक, पुलिस पर हमला, और संदिग्ध समूहों द्वारा लगाए गए “नक्सल स्लोगन” की अलग से जाँच का आदेश दिया गया। दिल्ली पुलिस अब वीडियो, फोटो, चेहरे और सोशल मीडिया रिकॉर्ड के आधार पर उन लोगों की पहचान कर रही है, जिन्होंने हिडमा के समर्थन में नारे लगाए।

इसके बाद शुरू हुआ राजनीति का भारी-भरकम कोलाहल सरकारी खेमे ने इसे “अर्बन नक्सल मानसिकता”, “सिस्टम को अस्थिर करने की कोशिश”, और “प्रदूषण के मुद्दे पर छिपा एजेंडा” बताया। दूसरी तरफ़ प्रदर्शनकारियों ने कहा “हमारा आंदोलन साफ था, कुछ लोगों ने इसे जानबूझकर हाइजैक किया।” इसी के बीच सबसे बड़ा नुकसान उस मुद्दे का हुआ, जिसे लेकर जनता इंडिया गेट पहुँची थी दिल्ली की दम तोड़ती हवा। यह एक विडंबना है कि जिस शहर में सांस लेना महंगा होता जा रहा है, वहाँ प्रदर्शन भी हवा नहीं, बल्कि नारों की राजनीति का शिकार हो गया। आने वाले दिनों में ये मामला सिर्फ पुलिस कार्रवाई तक सीमित नहीं रहेगा। यह संसद में उठेगा। यह टीवी डिबेट्स में भड़केगा। यह सोशल मीडिया पर “प्रदूषण बनाम देश-विरोधी नारे” की बहस बनकर फटेगा। और शायद, जैसा हमेशा होता है दिल्ली की हवा  वाला मुद्दा फिर पीछे छूट जाएगी। ऐसे ही लेटेस्ट खबरों के लिए सब्सक्राइब करें ग्रेट पोस्ट न्यूज़।

 

2.) क्या इंडिया गेट पर नक्सलवादी प्रदर्शनकारियों को रोका जा सकता था?

दिल्ली के प्रदूषण के खिलाफ हुए इंडिया गेट प्रदर्शन में आए लोग.....  यानी आम नागरिक जिनका उद्देश्य सिर्फ इतना था कि वे सरकार को बताएं कि हवा लगातार जहरीली होती जा रही है। ये लोग किसी राजनीतिक लड़ाई या वैचारिक टकराव के लिए नहीं आए थे लेकिन उनका सामना अचानक नक्सली विचारधारा के समूह से हो जाता है,वहाँ मौजूद भीड़ और पुलिस दोनों ही इस तरह की स्थिति के लिए तैयार नहीं थे। छोटा, लेकिन पूरी तरह संगठित और पहले से प्लान किया हुआ समूह अचानक भीड़ में घुसा, हाथ में तैयार पोस्टर, चेहरे पर आक्रामकता और कैमरे के सामने दिखने की पूरी कोशिश के साथ। उन्होंने ज़ोर-ज़ोर से माड़वी हिडमा के समर्थन में नारे लगाने शुरू किए, और भीड़ बस कुछ सेकंड के लिए ही सही, लेकिन पूरी तरह चौकन्नी हो गई। कई लोगों को यह तक पता नहीं था कि “Hidma” कोई कुख्यात नक्सली कमांडर का नाम है, कुछ ने इसे “Hindu/Hind” जैसा सुन लिया, कुछ समझ ही नहीं पाए कि हो क्या रहा है, और ज़्यादातर ने सोचा कि यह उनका मामला नहीं वे प्रदूषण की बात करने आए थे, लड़ाई करने नहीं। यही मौन इस छोटे समूह के लिए सबसे बड़ी ताक़त बन गया।

उधर पुलिस की स्थिति भी आसान नहीं थी। यह कोई आक्रामक प्रदर्शन नहीं था, बल्कि एक हेल्थ और पब्लिक इश्यू वाला शांतिपूर्ण कार्यक्रम था, इसलिए पुलिस शुरुआत से ‘सॉफ्ट मॉनिटरिंग’ में थी। इंडिया गेट कैमरों से भरा इलाका है, थोड़ी-सी भी जोर-जबर्दस्ती की फुटेज रातों-रात “पुलिस ने AQI प्रदर्शनकारियों पर हमला किया” बन सकती थी। इसलिए पुलिस का ध्यान ज्यादा भीड़ न बढ़े, ट्रैफिक न रुके, और माहौल शांत रहे इसी पर था। ऐसे माहौल में अचानक नारे लगाने वालों की पहचान करना और उन्हें तुरंत पकड़ना आसान नहीं होता, भीड़ में मिले-जुले लोग, बिना पहचान, बिना किसी अलग निशान के। और अगर पुलिस गलत व्यक्ति पकड़ लेती, तो वही वीडियो सोशल मीडिया पर बवाल खड़ा कर देता। यही वजह है कि पुलिस ने मौके पर आक्रामक कार्रवाई की बजाय बाद में वीडियो फुटेज और पहचान के आधार पर गिरफ्तारियाँ कीं। अब सवाल आता है भीड़ ने क्यों नहीं रोका? इसका जवाब सीधा है, ऐसी भीड़, जिसमें परिवार, महिलाएँ, बुज़ुर्ग और युवा हों, कभी भी वैचारिक झड़प में पहला कदम नहीं उठाते। कोई भी यह जोखिम नहीं लेता कि कल वही वीडियो में “हमलावर” दिख जाए। लोग जानते हैं कि सोशल मीडिया के दौर में झगड़े में पड़ने वाला ही आरोपी बनता है। इसलिए भीड़ ने खुद को अलग कर लिया, लेकिन सीधे टकराव में नहीं गई। और यही दूरी उस समूह के लिए जगह बनाती है जो पहले से तय एजेंडा लेकर आता है। असल बात यह है कि यह पूरी घटना किसी “जनता की बेवकूफ़ी” या “पुलिस की ढिलाई” का मामला नहीं है। यह भीड़ के असंगठित होने, पुलिस के संभलकर चलने और नारे लगाने वालों के पूरी तैयारी के साथ आने का संयुक्त असर था। अगर भीड़ संगठित होती, कोई लीडर होता, कोई कोऑर्डिनेशन टीम होती, और अगर पुलिस पहले से इस संभावना पर अलर्ट होती तो शायद उन नक्सल समर्थक नारों को उसी वक्त रोका जा सकता था। लेकिन उस शाम तीनों तत्व गायब थे, भीड़ बिखरी थी, पुलिस सतर्क लेकिन सीमित थी, और एजेंडा लाने वाला समूह पूरी तरह तैयार। यही वजह है कि कुछ लोग पूरी भीड़ पर हावी हो सके और कुछ मिनटों के लिए पूरा narrative हवा की चर्चा से हटकर नक्सलवाद की तरफ मुड़ गया। ऐसे ही लेटेस्ट खबरों के लिए सब्सक्राइब करें ग्रेट पोस्ट न्यूज़।

 

3.) The Untold Stories of Dharmendra Ji

आज…हम आपको सुनाने वाले हैं धर्मेंद्र के वो अनकहे किस्से, वो घटनाएँ…वो संघर्ष… वो रिश्ते…जिन्हें उन्होंने हमेशा दुनिया से छुपाकर रखा। वो कहानियाँ… जो न किताबों में मिलती हैं, न इंटरव्यू में पूरी कही जाती हैं,और आम लोग तो आज तक उन्हें जान भी नहीं पाए। ये उस आदमी का असली सफर है, जो पर्दे पर ही-मैन था, लेकिन जिंदगी में मिट्टी, मोहब्बत और मजबूरी से बना एक सच्चा इंसान। तो आइए… शुरू करते हैं धर्मेंद्र: उन अनसुने किस्सों की कहानी, जो दुनिया को आज तक नहीं बताई गई…

 बचपन में कई बार ऐसा हुआ कि धर्मेंद्र को स्कूल न जाने देकर खेतों में काम करवाया गया। उनका शरीर मजबूत था, पर अंदर एक बच्चा दबा हुआ था जो दुनिया देखना चाहता था। यह वो हिस्से हैं जिन्हें कभी इंटरव्यू में भी ज्यादा नहीं दोहराया गया। मुंबई आकर धर्मेंद्र महीनों तक स्टूडियो के ट्रकों में सोते थे। हाँ, ये बात फैक्ट है। उन्होंने खुद कई इंटरव्यू में कहा है “मैं स्टूडियो के पार्किंग में ट्रकों के नीचे सो जाता था। कृपा थी भगवान की कि किसी ने कभी मुझे हटाया नहीं।” उन वेतनहीन दिनों में धर्मेंद्र ने कई बार बिना खाए सिर्फ पानी पीकर दिन गुज़ारा। और उसी दौर में उन्होंने फिल्मफेयर टैलेंट हंट का फॉर्म भरा जिसे कई लोग नहीं जानते कि उन्होंने बिल्कुल आखिरी पैसे जोड़कर भरा था। बहुत लोग जानते हैं कि धर्मेंद्र ने किशोरावस्था में ही अपनी पहली पत्नी प्रकाश कौर से शादी की थी। लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि उस शादी के शुरुआती साल संघर्ष और दरारों से भरे हुए थे।

धर्मेंद्र मुंबई में थे प्रकाश पंजाब में। लंबी दूरी, गरीबी, तनहाई… इन सबने उनके रिश्ते को लगातार झकझोरा। धर्मेंद्र कई बार रोते हुए कहते थे “मैं फोन नहीं कर पाता था… क्योंकि उसके पैसे नहीं थे।” ये अनकहा दर्द उन्होंने कभी मीडिया में नहीं बेचा, सिर्फ अपने दिल में रखा। शोले में लोग इस किस्से को मज़ाक समझते हैं कि धरम जी ने लस्सी की जगह बियर पी ली थी। लेकिन असली बात इससे बड़ी है। उसी अवधि में धर्मेंद्र बेहद तनाव में थे क्योंकि उनकी पर्सनल लाइफ टूट रही थी, और प्रोफेशनल लाइफ चढ़ रही थी। दोनों का टकराव उन्हें अंदर से खा रहा था। वह अक्सर अकेले बैठकर स्टारडम से मिली अकेलापन चुपचाप सहते थे। ये “लस्सी वाला किस्सा” वास्तव में उनके अंदर के तनाव की एक झलक थी। उनकी मुस्कान नकली नहीं, पर दर्द से लड़ती हुई थी। धर्मेंद्र को कभी बेस्ट एक्टर का अवार्ड नहीं मिला यह तो सब जानते हैं। लेकिन कम लोग जानते हैं कि वह हर बार अवार्ड फंक्शन में अपनी मां की दी हुई मिट्टी की डिबिया अपने जेब में रखते थे। क्यों? क्योंकि वह मानते थे “अगर ट्रॉफी नहीं मिली तो भी, मां की मिट्टी मेरे पास है… यही काफ़ी है।” ये ऐसा सच है जो धर्मेंद्र ने सिर्फ नज़दीकी दोस्तों को बताया, कभी कैमरे पर नहीं। यह एक सुपरस्टार नहीं एक बेटा था, जो मान्यता की तलाश में नहीं, इज्ज़त की खोज मे था। हेमा मालिनी से रिश्ता: वो अनकही सच्चाई मीडिया ने इस रिश्ते को विवाद बनाया, लेकिन उसके पीछे की कहानी गहरी और भावनात्मक थी। हेमा मालिनी खुद कहती हैं “धर्मेंद्र पहली बार जब बोले, मैंने उनकी आँखों में एक गहरी अकेलापन देखा।” धर्मेंद्र हेमा से प्यार में पड़े, पर उन्होंने कभी अपनी पहली पत्नी के बारे में बुरा शब्द नहीं कहा।  बात बहुत कम लोग जानते हैं कि धर्मेंद्र और हेमा की शादी छुपकर नहीं, बल्कि परिवार की इज्जत बचाने के लिए चुपचाप की गई थी। उन्होंने कभी इसे तमाशा नहीं बनने दिया। यह रिश्ता जटिल था, लेकिन सम्मान से भरा था।2004 में वह BJP के सांसद बने, पर कम लोग जानते हैं कि पहले 6 महीने तक वह संसद में बोलने से डरते थे। धर्मेंद्र कहते थे “मुझे लगता था लोग कहेंगे यह हीरो क्या जानता है?” उन्होंने चुपचाप लंबे समय तक पॉलिटिकल ब्रीफिंग्स लीं, संसदीय प्रक्रियाएँ सीखीं, और धीरे-धीरे बोलना शुरू किया।  यह वह संघर्ष है जिसे लोग देखते नहीं क्योंकि पर्दे के बाहर हीरो बनना और कठिन होता है। आखिरी कुछ सालों में धर्मेंद्र का स्वास्थ्य गिर रहा था। वह कम बोलते थे, अक्सर पुराने फोटो देखते थे। 89 साल की उम्र में धर्मेन्द्र जी का निधन हुआ। देश उन्हें हमेशा लेजेंड के रूप में याद रखेगा। ऐसे ही इंस्पिरेशनल स्टोरीज के लिए सब्सक्राइब करें ग्रेट पोस्ट न्यूज़।