उत्तर प्रदेश के खेतों में इस वक्त बीज बोया जा चुका है, लेकिन किसान की नज़र अब भी थैली पर टिकी है DAP और यूरिया की थैली। गोदामों में लाखों मीट्रिक टन खाद का स्टॉक पड़ा है, लेकिन दुकानों पर लाइनें लगी हैं, धक्कामुक्की है, टोकन बंट रहे हैं और किसान घंटों कतार में खड़े होकर भी खाली हाथ लौट रहे हैं। सवाल बड़ा है जब सरकार कह रही है कि कमी नहीं है, तो फिर खेतों तक खाद क्यों नहीं पहुँच रही?
राज्य सरकार का कहना है कि 22–23 अगस्त तक यूपी में करीब 6 लाख मीट्रिक टन यूरिया, लगभग 3.9 लाख मीट्रिक टन DAP और 3 लाख मीट्रिक टन NPK उपलब्ध है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ खुद जिलाधिकारियों को निर्देश दे चुके हैं कि खाद की सप्लाई समय पर और पारदर्शी तरीके से हो। केंद्र सरकार भी साफ़ कह रही है देश में कहीं कोई संकट नहीं है, पर्याप्त स्टॉक मौजूद है। लेकिन ज़मीन पर तस्वीर उलट है। बाराबंकी, गोरखपुर, प्रयागराज, हरदोई, सीतापुर जैसे जिलों से रिपोर्ट आ रही हैं कि रिटेल आउटलेट्स पर POS मशीनें फेल हो रही हैं, आधार-बायोमेट्रिक वेरिफिकेशन में घंटों लग रहे हैं, और दुकानदार टोकन सिस्टम लागू कर रहे हैं। नतीजा लंबी कतारें, झगड़े, किसानों में बेचैनी।
कमी खेतों तक पहुँचने में है। गोदाम भरे पड़े हैं, लेकिन “लास्ट-माइल” यानी किसान तक वितरण की चेन अटक रही है। कई जगह ब्लैक-मार्केटिंग का खेल भी चल रहा है MRP से ज़्यादा दाम, थैली के साथ जबरन दूसरे सामान की बिक्री और थोक में स्टॉक उठाने की शिकायतें। सरकार छापेमारी कर रही है, लाइसेंस निलंबित हो रहे हैं, लेकिन किसानों का दर्द यही है जब बोआई का वक्त है, तब एक-एक दिन की देरी भी नुकसान करा देती है। गाँवों में ये संकट सिर्फ़ कृषि का नहीं, बल्कि सामाजिक तनाव का भी बन रहा है। खाद की लाइन में धक्का-मुक्की से लेकर स्थानीय नेताओं तक शिकायतें जा रही हैं। कई जगह किसान संगठनों ने विरोध प्रदर्शन भी किए। विपक्ष ने सरकार पर सवाल उठाए कि अगर “स्टॉक पर्याप्त है” तो फिर किसान भटक क्यों रहे हैं? सरकार का जवाब है “कमी नहीं, सिस्टम की गड़बड़ी है।” सवाल यह है कि इस गड़बड़ी का खामियाज़ा किसान क्यों भुगते ? तो किसान के लिए रास्ता क्या है? फिलहाल किसान को यही सलाह दी जा रही है MRP से ज़्यादा पैसे न दें, POS/आधार लेकर ही जाएँ, और टोकन के हिसाब से अपनी बारी संभालें। जो नहीं मिल पा रहा, उसका विकल्प ढूँढ़ें जैसे DAP न मिले तो SSP या NPK पर शिफ्ट हों, और यूरिया को एक साथ न डालकर स्प्लिट डोज़ में डालें। लेकिन यह सलाह किसान की बेबसी भी बयान करती है क्योंकि फसल का मौसम किसी की “गवर्नमेंट फ़ाइल” के हिसाब से इंतज़ार नहीं करता। यूपी में खाद संकट फिलहाल “गोदाम और खेत के बीच की दूरी” का संकट है। सरकार कह रही है कि स्टॉक पर्याप्त है, लेकिन किसान कह रहा है कि दुकानों पर थैलियाँ नहीं हैं। सरकार छापेमारी कर रही है, लेकिन ब्लैक-मार्केटर अब भी सक्रिय हैं। हकीकत यही है कि खरीफ के इस मौसम में जब हर दिन का मोल है, किसान का भरोसा “सरकारी स्टॉक” पर नहीं, बल्कि उस एक थैली खाद पर टिका है, जो उसकी बोई फसल को ज़िंदा रख सके।
भारत का उपराष्ट्रपति चुनाव इस बार महज़ एक औपचारिक प्रक्रिया नहीं है। यह सीधा-सीधा “पॉलिटिकल पावर बनाम कॉन्स्टिट्यूशनल आइडियल्स” की टक्कर है। इस बार यह कुर्सी अचानक खाली हुई क्योंकि जगदीप धनखड़ ने स्वास्थ्य कारणों से इस्तीफ़ा दे दिया। और अब मैदान में सिर्फ़ दो खिलाड़ी बचे हैं एक तरफ़ बीजेपी-आरएसएस की मिट्टी में पले, महाराष्ट्र के राज्यपाल सी. पी. राधाकृष्णन। दूसरी तरफ़ सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज बी. सुदर्शन रेड्डी, जिनके नाम से छत्तीसगढ़ का ‘सलवा जुडूम’ तक ढह गया। सवाल अब सिर्फ़ इतना नहीं कि कौन जीतेगा, सवाल ये है कि देश किस चेहरे से राज्यसभा की कुर्सी संभालना चाहता है सत्ता की मशीनरी से निकला चेहरा या संविधान का ज़मीर।
सी. पी. राधाकृष्णन का पूरा करियर उस नेता का सफ़र है, जो ज़्यादा चर्चा में नहीं रहा, लेकिन पार्टी की ज़रूरत पर हर जगह खड़ा मिला। तमिलनाडु में बीजेपी की जड़ें मज़बूत करने वाले नेताओं में उनका नाम अहम है। दो बार लोकसभा सांसद बने, फिर संगठन की जिम्मेदारियाँ संभालीं। जब पार्टी को दक्षिण में चेहरा चाहिए था तो उन्होंने दिया। जब दिल्ली को राज्यपाल चाहिए था तो वो झारखंड भेजे गए, बाद में महाराष्ट्र की कमान दी गई।
उनका सबसे बड़ा परिचय यही है कि वो “सत्ता तंत्र के भरोसेमंद सिपाही” हैं। सत्ता उन्हें जहाँ भेजती है, वे वहाँ जाकर ड्यूटी निभाते हैं। न कोई बग़ावत, न कोई विवाद। यही वजह है कि प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी हाईकमान ने उन्हें NDA का उम्मीदवार बनाया। और सच कहें तो यह फैसला केवल राधाकृष्णन की निष्ठा का इनाम नहीं, बल्कि एक रणनीति भी है दक्षिण भारत की तरफ़ एक राजनीतिक संदेश कि तमिलनाडु की ज़मीन से भी उपराष्ट्रपति निकलेगा। अब आते हैं विपक्षी उम्मीदवार पर। बी. सुदर्शन रेड्डी। उनका नाम सुनते ही सुप्रीम कोर्ट का वो फ़ैसला याद आता है, जिसने छत्तीसगढ़ की सरकार की जड़ों को हिला दिया था। सलवा जुडूम आदिवासियों को हथियार देकर नक्सलियों से लड़ाने की राज्य सरकार की नीति। रेड्डी की बेंच ने साफ़ कहा ये असंवैधानिक है। सरकार अपने नागरिकों को बंदूक थमाकर अपनी लड़ाई नहीं लड़वा सकती। यह फ़ैसला इतना बड़ा था कि आज भी देश के मानवाधिकार आंदोलन इसे संविधान की जीत कहते हैं। रेड्डी का करियर न्यायपालिका में सख़्ती और सिद्धांत पर टिका रहा। ब्लैक मनी मामले में केंद्र सरकार की खिंचाई हो या पारदर्शिता पर ज़ोर उनकी छवि एक ऐसे जज की है, जो न दबता है, न झुकता है। और यही छवि आज INDIA गठबंधन ने अपने राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल की है। उनका कहना है कि “सत्ता की राजनीति से भरा संसद अगर किसी के निगरानी की ज़रूरत है, तो वो ऐसे शख़्स के हाथों में होनी चाहिए जो संविधान का असली प्रहरी हो।” अब ज़रा ठंडे दिमाग़ से इस चुनावी गणित को समझिए। उपराष्ट्रपति का चुनाव लोकसभा और राज्यसभा दोनों सदनों के सांसद मिलकर करते हैं। वोटिंग होती है सीक्रेट बैलेट से, लेकिन नंबर झूठ नहीं बोलते। लोकसभा में NDA के पास करीब 293 सांसद हैं, INDIA ब्लॉक के पास 234। राज्यसभा में भी BJP और सहयोगियों का आंकड़ा 130 के आसपास है, विपक्ष उससे पीछे। यानी कुल मिलाकर NDA का पलड़ा इतना भारी है कि अगर क्रॉस-वोटिंग का कोई भूकंप न आया तो नतीजा पहले से लिखा हुआ लगता है। विपक्ष के लिए खेल वहीं है जहाँ “ग़ैर-संरेखित दल” खड़े हैं। BRS, BJD, YSRCP जैसी पार्टियाँ—कभी इधर तो कभी उधर। अगर ये मिलकर विपक्ष के पाले में आ जाएँ, तो तस्वीर थोड़ी दिलचस्प हो सकती है। लेकिन फिलहाल के संकेत बताते हैं कि बीजेपी को इन दलों से भी सपोर्ट मिलने की उम्मीद ज़्यादा है। इस चुनाव को अगर एक लाइन में समेटना हो तो कह सकते हैं “सत्ता का संगठन बनाम संविधान का प्रहरी।” राधाकृष्णन की जीत बीजेपी और आरएसएस की रणनीतिक जीत होगी। ये संकेत होगा कि संसद के दोनों प्रमुख पद लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा सभापति दोनों सत्ता के करीबी हाथों में हैं। वहीं अगर रेड्डी जीतते हैं, तो यह विपक्ष की नैरेटिव जीत होगी। ये संदेश जाएगा कि संसद में संविधान की भाषा बोलने वाला, मानवाधिकारों की बात करने वाला भी शीर्ष पर बैठ सकता है। लेकिन सच्चाई यही है कि संख्या बल में NDA का पलड़ा भारी है और नतीजा लगभग तय माना जा रहा है। यानी देश को नया उपराष्ट्रपति सी. पी. राधाकृष्णन ही मिलने वाले हैं। रेड्डी का चुनाव मैदान में उतरना, विपक्ष के लिए जीत से ज़्यादा “एक संदेश” देने की कोशिश है कि संसद सिर्फ़ सत्ता का मैदान नहीं है, बल्कि संविधान की आत्मा का भी घर है। तो 2025 का उपराष्ट्रपति चुनाव महज़ एक चेहरा चुनने का नहीं, बल्कि यह तय करने का है कि संसद का ऊपरी सदन किसके साये में चलेगा सत्ता के सिपाही के या संविधान के पहरेदार के। नतीजा चाहे जो भी हो, यह लड़ाई बताती है कि भारत की राजनीति में अब हर चुनाव सिर्फ़ सत्ता के लिए नहीं, बल्कि विचारधारा के लिए भी लड़ा जाएगा।बाकी चैनल तो आपको वही दिखाएंगे जो सब जगह मिलेगा… लेकिन यहां मिलेगा आपको वो जो कहीं और नहीं। तो, अगर भीड़ से हटकर सोचना है तो चैनल सब्सक्राइब कर डालिए और जुड़े रहिए हमसे