एशिया कप 2025 की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है और इसके साथ ही क्रिकेट की दुनिया में चयन, राजनीति और रणनीति का अनोखा संगम दिखाई दे रहा है। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने अपनी 15 सदस्यीय टीम की घोषणा कर दी है, जिसमें सूर्यकुमार यादव को कप्तान और शुबमन गिल को उपकप्तान की जिम्मेदारी सौंपी गई है। सबसे बड़ी राहत जसप्रीत बुमराह की वापसी है, जो टीम को संतुलन और धार प्रदान करेंगे। हालांकि, श्रेयस अय्यर और यशस्वी जायसवाल जैसे खिलाड़ियों को बाहर रखा गया है, जिसने चयन को लेकर कई सवाल खड़े किए हैं। श्रेयस अय्यर ने इस फैसले को स्वीकारते हुए इसे अपना “नसीब” बताया, लेकिन क्रिकेट बिरादरी में इसे लेकर बहस जारी है।
पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड ने भी अप्रत्याशित निर्णय लेकर सभी को चौंका दिया है। टीम के दो सबसे अनुभवी खिलाड़ियों—बाबर आज़म और मोहम्मद रिज़वान—को एशिया कप स्क्वॉड से बाहर कर दिया गया है। यह फैसला पाकिस्तान की रणनीति को पूरी तरह बदलता हुआ दिख रहा है और भारत के खिलाफ होने वाले हाई-वोल्टेज मुकाबले पर सीधा असर डाल सकता है।
राजनीतिक स्तर पर भी स्थिति साफ हो गई है। भारत सरकार ने दोहराया है कि पाकिस्तान के साथ द्विपक्षीय सीरीज़ संभव नहीं है, लेकिन बहुपक्षीय टूर्नामेंट जैसे एशिया कप में भारतीय टीम भाग लेगी। इसका अर्थ है कि 14 सितंबर को दुबई में होने वाला भारत-पाकिस्तान मैच तय है, और यह पूरे टूर्नामेंट का सबसे बड़ा आकर्षण बन चुका है।
टूर्नामेंट का आयोजन 9 से 28 सितंबर तक यूएई में होगा। भारत, पाकिस्तान, यूएई और ओमान ग्रुप A में हैं, जबकि ग्रुप B में श्रीलंका, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान और नेपाल शामिल हैं। सुपर-4 और फाइनल मुकाबले इसी ग्रुप स्टेज से तय होंगे। इस बार का एशिया कप केवल एक क्रिकेट प्रतियोगिता नहीं बल्कि क्षेत्रीय राजनीति, चयन विवाद और खिलाड़ियों के व्यक्तिगत संघर्षों का भी आईना बन गया है।
बिहार की राजनीति इस वक्त एक नई पटकथा लिख रही है और उसका नाम है “मतदाता अधिकार यात्रा”। राहुल गांधी का यह मिशन सिर्फ़ एक यात्रा नहीं, बल्कि चुनावी जंग का ट्रेलर है। 17 अगस्त को सासाराम के सौरा एयरोड्रोम ग्राउंड से यात्रा की शुरुआत हुई। मंच पर राहुल गांधी थे, बगल में तेजस्वी यादव और इंडिया ब्लॉक की पूरी फौज खड़ी थी। संदेश एकदम साफ़ “लोकतंत्र की लड़ाई अब सड़कों पर लड़ी जाएगी, और पहला सवाल वोट लिस्ट से छेड़छाड़ पर।” यात्रा का ब्लूप्रिंट कुल 16 दिन, करीब 1,300 किलोमीटर, 20 से ज़्यादा ज़िलों की धूल फांकते काफ़िले, और अंतिम पड़ाव पटना का गांधी मैदान, 1 सितंबर को। यही वह जगह है जहां विपक्षी गठबंधन अपनी ताकत का प्रदर्शन करना चाहता है। छठे दिन यात्रा पहुँची मुंगेर, इससे पहले शेखपुरा, लखीसराय और जमुई की गलियों में भीड़ जुटी। राहुल गांधी का स्वर हर जगह एक जैसा रहा “आपके वोट से खेल हो रहा है। अगर वोट चोरी हो जाए तो सरकार आपके मुद्दे क्यों सुनेगी? यही वजह है कि बेरोज़गारी आसमान छू रही है, किसान बेहाल हैं और युवा परीक्षा घोटालों से परेशान हैं।” सड़क किनारे की सभाओं में भीड़ से सीधे सवाल “क्या आपका नाम लिस्ट में है? और अगर नहीं है तो क्यों?” लेकिन राजनीति कभी सीधी नहीं होती। यात्रा के बीच एक ऐसा किस्सा भी हुआ जिसने नैरेटिव को पलटने की कोशिश की। एक गांव में परिवार ने दावा किया कि उनका नाम वोटर लिस्ट से गायब है। जब जांच हुई तो वही परिवार मान गया “नाम तो है।” सत्ता पक्ष ने इसे झंडा बना लिया“देखो, विपक्ष झूठ फैला रहा है।” जबकि राहुल खेमे ने कहा “ये अपवाद है, असली खेल बहुत बड़ा है।” यानी यात्रा जैसे-जैसे आगे बढ़ रही है, वैसे-वैसे दावों और जवाबों का टकराव और तीखा हो रहा है।
सियासी माहौल: कांग्रेस और आरजेडी इस यात्रा को लोकतंत्र की “जन-जागरण” यात्रा बता रहे हैं। उनका दावा है कि स्पेशल इंटेंसिव रिविजन (SIR) की आड़ में बड़े पैमाने पर वोटरों के नाम काटे गए। दूसरी तरफ़ बीजेपी और जेडीयू का पलटवार है “ये कोई अधिकार यात्रा नहीं, बल्कि राहुल गांधी की माफ़ी यात्रा है।” सत्ता पक्ष का तर्क है कि मतदाता सूची बिल्कुल पारदर्शी है और विपक्ष लोगों को गुमराह कर रहा है। अब असली कहानी यहाँ है यह यात्रा केवल वोटर लिस्ट की सफ़ाई के लिए नहीं निकली है। ये दरअसल 2025 विधानसभा चुनाव की ज़मीन नापने का अभियान है। ज़रा मानचित्र देखिए जिन ज़िलों से यात्रा गुज़र रही है, वही वो इलाक़े हैं जहाँ 2020 के चुनाव में एनडीए और महागठबंधन की टक्कर कांटे की रही थी। साफ़ है कि विपक्ष इन इलाकों में हवा को अपने हक़ में मोड़ना चाहता है। और पटना की गांधी मैदान रैली? बस समझ लीजिए, यह पूरा सीरियल का ग्रैंड फ़िनाले होगा। वहीं तय होगा कि राहुल गांधी का “वोट चोरी” नैरेटिव जनता के दिल में जगह बनाता है या फिर सत्ता पक्ष के “फ़र्ज़ी यात्रा” वाले वार भारी पड़ते हैं। एक निचोड़ में कहे तो बिहार की सड़कों पर सिर्फ़ धूल नहीं उड़ रही, बल्कि राजनीति के पटाखे भी फूट रहे हैं। काफ़िला आगे बढ़ रहा है कहीं नारे, कहीं सड़क पर जनता का हुजूम, तो कहीं विरोधियों की तंज़बाज़ी। सवाल यही है कि सितंबर आते-आते कौन सा बाजा ज़्यादा बजेगा “वोट अधिकार का ढोल” या “फ़र्ज़ी नैरेटिव का ढमाका।”