पिछले कुछ दिनों से सोशल मीडिया पर आपने ज़रूर देखा होगा लोग ज़ुबीन गर्ग नाम के गायक की तस्वीरें शेयर कर रहे हैं, रो रहे हैं, श्रद्धांजलि दे रहे हैं। गुवाहाटी से लेकर दिल्ली तक लोग सड़क पर उतरकर कैंडल मार्च निकाल रहे हैं। सवाल उठता है ये ज़ुबीन गर्ग आखिर कौन थे और लोग क्यों इतना दुखी हैं? ज़ुबीन गर्ग का नाम शायद यूपी, बिहार या राजस्थान में बहुत लोगों ने पहली बार अब सुना होगा। लेकिन असम और नॉर्थ-ईस्ट के लिए ज़ुबीन सिर्फ गायक नहीं थे, बल्कि भावनाओं की पहचान थे। ज़ुबीन ने 16 हज़ार से ज्यादा गाने गाए, वो भी कई भाषाओं में असमी, हिंदी, बंगाली, तमिल। बॉलीवुड में उनका सबसे पॉपुलर गाना था “Ya Ali reham wali” (फिल्म: Gangster, 2006)। ये गाना उस समय इतना हिट हुआ कि शादी-ब्याह, कॉलेज, चाय की दुकान हर जगह गूंजता था। असम में लोग उन्हें सिर्फ गायक नहीं, बल्कि कल्चर का हीरो मानते थे।
19 सितंबर 2025 को ज़ुबीन गर्ग सिंगापुर में स्कूबा डाइविंग करने गए। उन्हें लाइफ जैकेट पहनने के लिए कहा गया, लेकिन उन्होंने उतार दी। पानी में उतरने के बाद अचानक उन्हें सांस लेने में दिक्कत हुई। अस्पताल ले जाया गया, ICU में भर्ती किया गया लेकिन डॉक्टर बचा नहीं पाए। वे सिर्फ 52 साल के थे। अब सिंगापुर पुलिस जांच कर रही है कि मौत डूबने से हुई या किसी और वजह से। असम में ज़ुबीन का जाना ऐसे है जैसे बिहार में मनोज तिवारी । मतलब एक ऐसी आवाज़, जो हर गली, हर घर, हर रेडियो, हर त्योहार का हिस्सा हो। असम की युवा पीढ़ी कह रही है “हमारी जवानी का साउंडट्रैक चला गया।” बड़े-बुज़ुर्गों के लिए वो आवाज़ रेडियो पर रोज़ की आदत थी। उनके गानों में दर्द भी था, रोमांस भी और समाज की बातें भी। यानी, ज़ुबीन के जाने से असम को ऐसा लग रहा है जैसे अपनी आत्मा का एक हिस्सा खो दिया हो। अगर आप यूपी, दिल्ली या किसी और राज्य में रहते हैं और सोच रहे हैं “आखिर इतना शोक क्यों?” तो इसे ऐसे समझिए जैसे लता मंगेशकर या किशोर कुमार के जाने पर पूरा भारत रोया था, वैसे ही असम और नॉर्थ-ईस्ट ज़ुबीन गर्ग को रो रहा है। उनकी मौत सिर्फ एक हादसा नहीं, बल्कि उस दौर का अंत है जिसमें एक गायक अपने गाने से पूरी संस्कृति को जीता था। ऐसे ही लेटेस्ट खबरों के लिए सब्सक्राइब करें ग्रेट पोस्ट न्यूज़।
भारत की नज़र अब आसमान से ज़्यादा समुद्र पर है। सरकार ने एक ₹70,000 करोड़ का मेगा पैकेज तैयार किया है, जिससे देश की शिपबिल्डिंग और पोर्ट इन्फ्रास्ट्रक्चर को नई ताक़त मिलेगी। अभी तक भारत जहाज़ बनाने की वैश्विक दौड़ में 14वें नंबर पर है, लेकिन लक्ष्य है अगले पाँच सालों में दुनिया के टॉप 10 देशों में जगह बनाना। यह सिर्फ जहाज़ बनाने की योजना नहीं है, बल्कि भारत को समुद्री व्यापार का सुपरपावर बनाने का खाका है।
इस पैकेज में कई ऐसे प्रावधान हैं, जो सीधे भारत की शिपबिल्डिंग इंडस्ट्री को नई जान देंगे। Shipbuilding Financial Assistance Programme (SBFAP 2.0): शिपयार्ड्स को सब्सिडी और इन्सेंटिव्स मिलेंगे, ताकि पुराने जहाज़ बनाने वाले यार्ड फिर से सक्रिय हों और नए निवेशक आकर्षित हों। Maritime Development Fund (MDF): लंबी अवधि का सस्ता फाइनेंस उपलब्ध कराया जाएगा। शिप मालिकों और शिपयार्ड्स के लिए पूंजी जुटाना अब उतना मुश्किल नहीं रहेगा। Shipping Cluster Programme: तटीय राज्यों में शिपबिल्डिंग क्लस्टर तैयार होंगे जहां एक ही जगह पर पोर्ट, शिप रिपेयर सुविधाएँ, वर्कशॉप, यूटिलिटी और पूरी सप्लाई चेन मौजूद होगी। पहले चरण में गुजरात, ओडिशा, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्यों को चुना गया है, जहां समुद्री किनारे और उद्योग दोनों का बेहतर तालमेल है।
सरकार ने हाल ही में बड़े जहाज़ों को ‘इन्फ्रास्ट्रक्चर स्टेटस’ दे दिया है। इसका मतलब यह हुआ कि अब जहाज़ बनाना और खरीदना किसी हाईवे या एयरपोर्ट प्रोजेक्ट की तरह माना जाएगा। इससे कंपनियों को बैंक से सस्ता और आसान लोन मिलेगा। इससे विदेशी निवेश खिंचकर आएगा और भारत का जहाज़ीकरण (maritime capacity) और मज़बूत होगा।
आज वैश्विक शिपबिल्डिंग की कमान चीन, दक्षिण कोरिया और जापान के हाथों में है। भारत के पास लंबा समुद्री तट है, बेहतरीन पोर्ट्स हैं, और विशाल मार्केट है, लेकिन जहाज़ बनाने में हम पीछे रह गए। इसका नतीजा यह है कि भारत को अपने अधिकांश बड़े जहाज़ विदेशों से खरीदने पड़ते हैं। पोर्ट इन्फ्रास्ट्रक्चर की कमी और महंगी शिपिंग लागत के कारण भारत का लॉजिस्टिक्स खर्च जीडीपी के 13-14% तक पहुँच जाता है, जबकि विकसित देशों में यह 8-9% है। इस पैकेज से उम्मीद है कि न सिर्फ जहाज़ भारत में बनेंगे, बल्कि व्यापार की लागत भी घटेगी।
अमेरिका जाना है? तो अब या तो गोल्ड कार्ड निकालो या H-1B वीज़ा पर 1 लाख डॉलर का टैक्स भरो। डोनाल्ड ट्रंप के ताज़ा फैसलों ने पूरे इमिग्रेशन सिस्टम को हिलाकर रख दिया है। ट्रंप का कहना है कि “अमेरिका कोई धर्मशाला नहीं है, यहां रहना है तो योगदान देना होगा।” और योगदान भी ऐसा-वैसा नहीं सीधे करोड़ों की चढ़त।
ज़रा सोचिए आप अमेरिका की स्थायी नागरिकता चाहते हैं, जिसे हम ग्रीन कार्ड कहते हैं। पहले ये सफर लंबा होता था अलग-अलग कोटा, लॉटरी, वेटिंग पीरियड, और ढेर सारी पेपरवर्क। लेकिन अब ट्रंप ने इसे शॉर्टकट बना दिया है। उन्होंने लॉन्च किया है Trump Gold Card।
नियम साफ है एक मिलियन डॉलर यानी करीब 8.5 करोड़ रुपए दीजिए, और अमेरिका का गोल्ड कार्ड पाइए। अगर कोई कंपनी किसी विदेशी कर्मचारी को वहां भेजना चाहती है तो उसे 2 मिलियन डॉलर यानी लगभग 17 करोड़ रुपए देने होंगे। इतना पैसा देने के बाद आपको अमेरिका में स्थायी तौर पर रहने का हक मिल जाएगा। और बस यही नहीं इससे ऊपर एक “Platinum Card” भी आने वाला है, जिसके तहत आप साल में 270 दिन अमेरिका में बिना टैक्स की झंझट के रह सकते हैं। मतलब साफ है अब अमेरिका केवल स्किल्ड लोगों को नहीं, बल्कि सुपर-रिच लोगों को खुला न्योता दे रहा है।
अब बात करते हैं उस वीज़ा की, जिसे भारत के लाखों छात्र और आईटी प्रोफेशनल्स हर साल अप्लाई करते हैं H-1B वीज़ा। यह वीज़ा उन लोगों को मिलता है जिनके पास खास तकनीकी स्किल्स होते हैं सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग, रिसर्च, साइंस, मैनेजमेंट जैसी फील्ड में। पहले तक इसमें आवेदन फीस कुछ सौ डॉलर थी, और मुख्य चुनौती थी लॉटरी और वेटिंग।
लेकिन ट्रंप ने इसमें भी बम गिरा दिया है। नया नियम कहता है कि अब हर H-1B आवेदन पर 100,000 डॉलर यानी करीब 85 लाख रुपए की फीस देनी होगी। और ये केवल एक बार नहीं बल्कि सालाना पेमेंट होगी। यानी अब अगर आप अमेरिका जाकर काम करना चाहते हैं, तो आपके स्किल्स के साथ-साथ आपकी जेब भी भारी होनी चाहिए। ट्रंप का कहना है कि H-1B वीज़ा के जरिए बाहर से आए लोग अमेरिकी नौकरियां छीन रहे हैं। “अमेरिका को अब केवल उन लोगों की जरूरत है जो यहां निवेश करें, न कि सिर्फ कमाने आएं” ट्रंप का यह बयान साफ करता है कि उनकी पॉलिसी “America First” अब “Money First” में बदल रही है।
गोल्ड कार्ड और H-1B फीस की इस नई पॉलिसी से सीधे अमेरिका की इकोनॉमी में अरबों डॉलर आने की संभावना है। लेकिन सवाल ये है कि क्या इस तरह अमेरिका अपने असली टैलेंट को खो देगा? क्योंकि बहुत से स्किल्ड लोग होंगे जिनके पास इतना पैसा नहीं होगा। भारत H-1B वीज़ा का सबसे बड़ा उपभोक्ता है। हर साल हजारों भारतीय इंजीनियर, डॉक्टर और आईटी प्रोफेशनल्स H-1B के जरिए अमेरिका जाते हैं। अब सवाल है क्या भारतीय कंपनियां हर कर्मचारी पर 100,000 डॉलर की भारी रकम चुका पाएंगी? शायद नहीं। इसका सीधा असर भारत से अमेरिका जाने वाले लोगों पर पड़ेगा। वहीं, जिनके पास पैसा है बड़े बिज़नेसमैन या हाई-नेटवर्थ इंडिविजुअल्स they can simply buy the Gold Card. यानी स्किल्ड लेकिन मिडिल-क्लास इंडियन युवाओं के लिए अमेरिका का रास्ता अब और कठिन हो गया है, जबकि अमीरों के लिए आसान। ऐसे ही लेटेस्ट खबरों के लिए सब्सक्राइब करें ग्रेट पोस्ट न्यूज़।