Indian Stock Market एक बार फिर घबराए हुए निवेशकों की तस्वीर पेश कर रहा है। बीते हफ्ते की तेज गिरावट के बाद उम्मीद थी कि सोमवार को कुछ राहत मिलेगी, लेकिन बाजार ने उम्मीदों पर पानी फेरते हुए हफ्ते की शुरुआत भी negative zone में की। शुरुआत भले ही हल्की तेजी के साथ हुई हो, लेकिन बाजार की हालत कुछ ही मिनटों में उलट गई। दोपहर होते-होते बीएसई सेंसेक्स और एनएसई निफ्टी – दोनों प्रमुख इंडेक्स बुरी तरह लुढ़कते नजर आए । Bombay Stock Exchange का 30 शेयरों वाला इंडेक्स Sensex सोमवार को मामूली तेजी के साथ 82,537 के स्तर पर ओपन हुआ, जबकि इसका पिछला क्लोजिंग 82,500 था। लेकिन ये बढ़त टिक नहीं पाई और कुछ ही समय में इंडेक्स गिरकर 82,010 के लेवल तक लुढ़क गया – यानी 450 अंकों से ज्यादा की गिरावट।
National Stock Exchange का बेंचमार्क Nifty 50 भी ऐसी ही चाल चला। यह 25,149के पिछले क्लोजिंग के मुकाबले 25,149 पर फ्लैट ओपन हुआ, लेकिन जल्द ही इसमें भी 148 अंकों तक की गिरावट दर्ज हुई और ये 25,001 तक गिर गया।
सोमवार की गिरावट की सबसे बड़ी वजह रही Information Technology Tech Mahindra plunged by 2.50%,
Infosys declined by 2.10%, TCS slipped by 1.70%,
जबकि HCL Technologies में भी 1.50% की गिरावट रही।
Global clients से revenue पर dependency रखने वाले इन कंपनियों पर US और European demand slowdown का असर दिख रहा है। इसके साथ ही डॉलर और रुपया की चाल में अस्थिरता भी इन कंपनियों की कमाई को प्रभावित कर रही है।
मार्केट ओपनिंग के वक्त mixed breadth देखने को मिला: 1228 कंपनियों के शेयरों में तेजी, 1274 कंपनियों के स्टॉक्स गिरावट में खुले, और 202 शेयर ऐसे थे जिनमें कोई खास मूवमेंट नहीं हुआ। लार्ज कैप स्टॉक्स कोड देखे तो Asian Paints -1.90%Bajaj Finance -1.50%, Larsen & Toubro -1.45%Tata Motors -1.20% वही Midcap Stocks देखे तो AU Small Finance Bank -2.29%,IDFC First Bank -2.05%,Glaxo -1.80% Bharti Hexacom -1.77 Smallcap Stocks में GEPIL -7.28%, Honda Power -4.99%
1. US Tariff Impact:
अमेरिकी राष्ट्रपति की ओर से 1 अगस्त 2025 से लागू होने वाली high import tariffs ने पूरी दुनिया के बाज़ारों में हलचल मचा दी है। हालांकि कई देशों को लेकर पॉलिसी क्लियर हो चुकी है, लेकिन India-US Trade Deal पर अब तक कोई अंतिम निर्णय नहीं हुआ है। यही वजह है कि Indian investors remain on edge, खासकर export-oriented sectors जैसे IT, pharma और auto components के लिए।
2. Q1 Earnings Pressure:
Quarter 1 Results (April-June FY26) जारी हो रहे हैं और कई कंपनियों के performance ने निवेशकों को निराश किया है। Muted revenue growth, shrinking margins और weak guidance जैसे संकेतों ने बाजार में गिरावट को और बढ़ावा दिया।
3. Global Uncertainty & Geopolitical Tensions:
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर geopolitical instability और US-China trade relations की टेंशन ने निवेशकों की सोच में भारी अस्थिरता पैदा कर दी है। इसके अलावा Brent crude की कीमतों में उतार-चढ़ाव और डॉलर की मजबूती ने भी विदेशी निवेशकों को डरा दिया है । भारतीय शेयर बाजार एक cautious mode में चल रहा है। विदेशी नीतियों का असर, घरेलू कंपनियों के कमजोर नतीजे और ग्लोबल संकेतों की अनिश्चितता मिलकर बाजार में panic selling को बढ़ावा दे रहे हैं। ऐसे में investors को चाहिए कि वे हर कदम सोच-समझकर रखें।
भारतीय सिनेमा के इतिहास की अब तक की सबसे महंगी फिल्म 'रामायण' एक बार फिर सुर्खियों में है। निर्देशक नितेश तिवारी द्वारा बनाई जा रही इस फिल्म का बजट सुनकर फिल्म इंडस्ट्री ही नहीं, आम दर्शक भी हैरान हैं। हाल ही में इस मेगा प्रोजेक्ट का फर्स्ट लुक टीज़र जारी किया गया, जिसमें रणबीर कपूर भगवान राम के रूप में दिखाई दिए। फिल्म दो भागों में रिलीज होगी, जिनमें से पहला पार्ट दिवाली 2026 पर सिनेमाघरों में उतरेगा।
प्रोड्यूसर नमित मल्होत्रा ने हाल ही में इस फिल्म के बजट को लेकर बड़ा खुलासा किया। उनका कहना है कि ‘रामायण’ सिर्फ एक फिल्म नहीं, बल्कि उनके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट है। इंटरव्यू में उन्होंने बताया कि दोनों पार्ट्स को मिलाकर फिल्म का कुल बजट करीब 500 मिलियन डॉलर यानी 4000 करोड़ रुपये है। उनके मुताबिक, "जब तक हम दोनों फिल्में पूरी कर लेंगे, तब तक कुल लागत 4000 करोड़ से भी ऊपर पहुंच जाएगी।" नमित का यह भी दावा है कि हॉलीवुड की कई बड़ी फिल्मों के मुकाबले वह इस फिल्म को कम बजट में बना रहे हैं और उनके लिए यह सिर्फ पैसों का मामला नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति को ग्लोबल मंच पर पेश करने का मिशन है।
हालांकि, इस बजट को लेकर सोशल मीडिया और इंडस्ट्री में तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आ रही हैं। भारतीय सिनेमा में आज तक कोई भी फिल्म 2000 करोड़ रुपये तक के बजट तक नहीं पहुंची है। यहां तक कि आरआरआर, पठान, जवान और कल्कि 2898 AD जैसी ब्लॉकबस्टर फिल्मों ने भी 1000 करोड़ की लागत को पार नहीं किया। 4000 करोड़ की लागत वाली फिल्म को बॉक्स ऑफिस पर खुद को साबित करने के लिए कम से कम 1500-2000 करोड़ रुपये की कमाई करनी होगी जो एक बेहद चुनौतीपूर्ण लक्ष्य है।
फिल्म में VFX और CGI टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल किया जा रहा है। इसके विजुअल इफेक्ट्स का काम ऑस्कर विनर कंपनी DNEG कर रही है, जो "इंटरस्टेलर", "ओपेनहाइमर", "टेनेट" जैसी वैश्विक फिल्मों में भी काम कर चुकी है। हालांकि इसी बिंदु पर सबसे बड़ा खतरा भी मौजूद है। दो साल पहले ओम राउत द्वारा निर्देशित ‘आदिपुरुष’ में भारी-भरकम VFX के बावजूद फिल्म बुरी तरह फ्लॉप हो गई थी। ना सिर्फ कहानी और संवाद, बल्कि किरदारों की प्रस्तुति भी दर्शकों को निराश कर गई थी। ऐसे में ‘रामायण’ के लिए भी यही सवाल खड़ा हो गया है—क्या तकनीक भावना से बड़ी होगी?
रामायण के कलाकारों की बात करें तो रणबीर कपूर भगवान राम की भूमिका निभा रहे हैं, जबकि सई पल्लवी माता सीता की भूमिका में नजर आएंगी। रवि दुबे लक्ष्मण का किरदार निभा रहे हैं, और यश रावण की भूमिका में खलनायक के तौर पर नजर आएंगे। वहीं सनी देओल को भगवान हनुमान के अवतार में देखना दर्शकों के लिए किसी सरप्राइज से कम नहीं होगा। लेकिन सबसे बड़ी चुनौती है क्या ये सभी कलाकार उस पवित्रता और गहराई के साथ किरदार निभा पाएंगे, जो रामानंद सागर की 'रामायण' में अरुण गोविल, दीपिका चिखलिया और दारा सिंह ने निभाई थी?
रामायण जैसी पौराणिक गाथा को पर्दे पर उतारना एक जिम्मेदारी भरा कार्य है। जहां भावनाओं, आस्था और संस्कृति से खिलवाड़ की कोई गुंजाइश नहीं होती, वहीं फिल्म को आधुनिक तकनीक और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रस्तुत करने की भी आवश्यकता है। ऐसे में यह फिल्म तीन बड़े जोखिमों से घिरी नजर आ रही है पहला, बजट का बोझ दूसरा, VFX का अत्यधिक प्रयोग और तीसरा, पौराणिक कथा के साथ न्याय करने की नैतिक चुनौती। नितेश तिवारी और उनकी टीम अगर इस संतुलन को साधने में सफल होती है, तो यह फिल्म भारतीय सिनेमा के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज होगी। वरना, यह एक और ‘आदिपुरुष’ बनकर इतिहास की सबसे महंगी भूल भी साबित हो सकती है।
महाराष्ट्र की राजनीति में इन दिनों एक बार फिर ‘भाषा’ सियासी अखाड़े का केंद्र बन गई है। मुंबई के समीप मीरा-भायंदर इलाके में एक गैर-मराठी व्यवसायी के साथ मारपीट की घटना के बाद उभरा विवाद अब पूरी तरह राजनीतिक रंग ले चुका है। भाजपा सांसद निशिकांत दुबे की तीखी प्रतिक्रिया और उसके जवाब में मनसे प्रमुख राज ठाकरे की आक्रामक शैली ने मराठी बनाम हिंदी बहस को एक बार फिर हवा दे दी है। इस विवाद ने तब और तूल पकड़ा जब निशिकांत दुबे ने राज ठाकरे पर हमला बोलते हुए बयान दिया कि अगर ठाकरे यूपी-बिहार आए, तो उन्हें "पटक-पटक कर मारा जाएगा।" दुबे का यह बयान महज आलोचना नहीं, बल्कि धमकी के स्वर में था, जिसने मराठी अस्मिता की राजनीति के सबसे मुखर चेहरे, राज ठाकरे को तीखा पलटवार करने पर मजबूर कर दिया। राज ठाकरे का पलटवार: “मुंबई आइए, समंदर में डुबो-डुबो कर मारेंगे” मीरा-भायंदर में एक सभा को संबोधित करते हुए राज ठाकरे ने भाजपा सांसद की टिप्पणी को गंभीरता से लेते हुए दो टूक अंदाज़ में जवाब दिया। उन्होंने कहा “भाजपा के एक सांसद कहते हैं कि मराठी लोगों को पटक-पटक कर मारेंगे। मैं उन्हें कहता हूं मुंबई आइए, यहां समंदर है, डुबो-डुबो कर मारेंगे।”
यह सिर्फ एक भावनात्मक प्रतिक्रिया नहीं थी, बल्कि महाराष्ट्र की क्षेत्रीय अस्मिता और भाषा-संस्कृति को लेकर लंबे समय से चल रही बहस को फिर से राजनीतिक एजेंडा बनाने की मंशा भी दिखाती है।राज ठाकरे ने राज्य सरकार द्वारा हिंदी को कक्षा 1 से 5 तक अनिवार्य करने के फैसले पर भी सख्त ऐतराज़ जताया। उन्होंने चेतावनी दी कि अगर यह फैसला दोबारा थोपा गया, तो उनकी पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (MNS) ऐसे स्कूलों को बंद करवा देगी। उन्होंने दो-टूक कहा “जो महाराष्ट्र में रहते हैं, वे मराठी सीखें। जितनी जल्दी हो सके, मराठी बोलना शुरू करें। हम भाषा और मातृभूमि के मामले में कोई समझौता नहीं करेंगे।” मनसे प्रमुख का यह बयान उस पृष्ठभूमि में आया है जब फडणवीस सरकार को हिंदी अनिवार्य करने के दो आदेशों को भारी विरोध के कारण वापस लेना पड़ा था। इस फैसले का न केवल मनसे, बल्कि उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना (यूबीटी), कांग्रेस और एनसीपी (शरद पवार गुट) ने भी तीखा विरोध किया था। निशिकांत दुबे का तर्क: “मुंबई सिर्फ मराठियों की नहीं” वहीं, भाजपा सांसद निशिकांत दुबे ने अपनी बात पर कायम रहते हुए कहा कि मुंबई पूरे देश की है, न कि सिर्फ मराठियों की। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि ठाकरे बंधु राज और उद्धव—महाराष्ट्र के लोगों को भड़काकर राजनीतिक रोटियाँ सेंक रहे हैं। सवाल उठता है: क्या यह सिर्फ भाषा का मुद्दा है?
यह विवाद महज भाषा की अस्मिता का नहीं, बल्कि राजनीतिक ताकत और जमीन के पुनर्वितरण का प्रयास भी है। एक तरफ भाजपा केंद्र की राष्ट्रभाषा नीति के तहत हिंदी को विस्तार देना चाहती है, वहीं क्षेत्रीय दल इसे सांस्कृतिक घुसपैठ मानते हैं।
राज ठाकरे ने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत ही ‘मराठी मानुष’ के मुद्दे से की थी, और अब एक बार फिर वह उसी आधार को राजनीतिक ताकत में बदलने की कोशिश कर रहे हैं। दूसरी ओर भाजपा इस पूरे विवाद को ‘एक राष्ट्र, एक भाषा’ जैसे भाव से जोड़कर राष्ट्रवाद की छवि मजबूत करना चाहती है। मुंबई, जिसे देश की आर्थिक राजधानी कहा जाता है, हमेशा से भाषाई और सांस्कृतिक विविधता का प्रतीक रही है। लेकिन ऐसे बयान और पलटवार इस महानगरी की समावेशी पहचान को चोट पहुंचा सकते हैं। अगर यह विवाद इसी तरह राजनीतिक बयानबाज़ी और धमकियों में बदलता रहा, तो इसका असर न केवल महाराष्ट्र की सामाजिक संरचना पर पड़ेगा, बल्कि आने वाले चुनावों में भी इसका प्रभाव दिख सकता है।
जब किसी देश का highest constitutional authority ही मीडिया के निशाने पर आ जाए और बात सिर्फ criticism तक सीमित न रहकर उसकी criminal image गढ़ने तक पहुँच जाए तो सवाल उठना लाज़मी है कि क्या press freedom अब character assassination का हथियार बन चुकी है?
Journalism का essence है truth, fairness and public interest.But what happens when journalism isn't driven by facts but by bias and agenda? ऐसे में उसका विरोध करना सिर्फ एक व्यक्ति का हक़ नहीं, बल्कि पूरे लोकतंत्र की moral responsibility बन जाता है। अमेरिका में कुछ ऐसा ही अब हो रहा है जहाँ खुद President Donald Trump ने mainstream media के खिलाफ कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया है। ट्रंप ने प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय समाचार संस्था The Wall Street Journal (WSJ) और उसके कॉर्पोरेट मालिकों के खिलाफ एक high-profile defamation lawsuit दायर किया है। यह मुकदमा न केवल उनके personal reputation की रक्षा का मामला है, बल्कि fake news media के खिलाफ एक systemic counterattack है, जिसे ट्रंप ने अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म Truth Social पर घोषित किया। ट्रंप ने इस मुकदमे को “a defining legal battle for media accountability in America” करार देते हुए कहा कि यह सिर्फ एक राष्ट्रपति के खिलाफ छवि बिगाड़ने की साज़िश नहीं है, बल्कि अमेरिका के करोड़ों नागरिकों के साथ विश्वासघात है जो निष्पक्ष और सच्ची पत्रकारिता की उम्मीद रखते हैं। इस मुकदमे की शुरुआत उस रिपोर्ट से हुई, जिसे WSJ ने हाल ही में प्रकाशित किया। रिपोर्ट में दावा किया गया कि 2003 में डोनाल्ड ट्रंप ने कुख्यात ट्रैफिकर जेफ्री एपस्टीन को एक निजी चिट्ठी भेजी थी, जिसमें एक नग्न महिला की स्केच भी शामिल थी। WSJ ने इसे “exclusive archival material” बताते हुए ट्रंप को एपस्टीन के कथित नेटवर्क से जोड़ने की कोशिश की। ट्रंप ने रिपोर्ट को तुरंत “fabricated, malicious and intentionally defamatory” बताया और स्पष्ट किया: “मैंने न तो किसी महिला का स्केच कभी बनाया, न ही यह मेरी शैली या भाषा है। यह पूर्ण रूप से manufactured evidence है।”
इस केस में ट्रंप ने सिर्फ WSJ नहीं, बल्कि इसके प्रमुख मालिक रूपर्ट मर्डोक (Rupert Murdoch), रॉबर्ट थॉमसन (Robert Thomson) और अन्य सहयोगियों को भी शामिल किया है। उन्होंने कहा: “चाहे इनकी भूमिका प्रत्यक्ष रही हो या अप्रत्यक्ष, ये सभी लोग इस झूठ को गढ़ने और फैलाने के लिए जिम्मेदार हैं। अब समय आ गया है कि legal cross-examination के ज़रिए सच्चाई सामने लाई जाए।” उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा कि सभी पक्ष “long depositions, cross-examinations, and full judicial scrutiny” के लिए तैयार रहें, क्योंकि यह मुकदमा “not just a reputational fight but a constitutional correction” होगा। यह मामला सिर्फ ट्रंप की मानहानि तक सीमित नहीं है। इस मुकदमे के बहाने ट्रंप ने एक national movement against fake news media को जन्म दिया है। उन्होंने अपने Truth Social पोस्ट में लिखा “यह लड़ाई मेरी नहीं है… यह उन सभी अमेरिकियों की है जो मीडिया के झूठ और सत्ता के गठजोड़ से त्रस्त हैं। यह केस प्रेस की आज़ादी नहीं, प्रेस की साज़िशकारी प्रवृत्ति के खिलाफ है।” उन्होंने अंत में अपने प्रसिद्ध चुनावी नारे “Make America Great Again” के साथ संदेश दिया कि यह केस अमेरिका को फिर से सत्य, न्याय और ईमानदारी के मार्ग पर लाने की शुरुआत है। डोनाल्ड ट्रंप के लिए मीडिया से टकराव नया नहीं है। अपने पहले कार्यकाल से ही उन्होंने CNN, New York Times, MSNBC जैसी संस्थाओं को “enemy of the people” कहकर निशाने पर लिया है। लेकिन इस बार की कार्रवाई सिर्फ rhetoric नहीं, बल्कि एक judicial precedent-setting battle है। अगर कोर्ट ट्रंप के पक्ष में फैसला सुनाती है, तो यह अमेरिका ही नहीं, दुनिया भर की मीडिया संस्थाओं के लिए एक watershed moment होगा कि किसी भी कीमत पर truth and verification की सीमाओं को लांघना अब judicially punishable होगा।