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Breaking News 18 November 2025

1 )  The Stability Theory: Why Bihar Rejects Change.

एक राज्य, एक जनादेश और एक नेता की सबसे लंबी राजनीतिक सर्वाइवल स्टोरी…बिहार की राजनीति परीक्षा की कॉपी नहीं, प्रतियोगी परीक्षा का पूरा सिलेबस है जितना पढ़ो, उतना कम। और इस सिलेबस में एक अध्याय है जो हटता नहीं नीतीश कुमार। वो नेता, जो न सिर्फ दसवीं बार मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं बल्कि बिहार की सत्ता की वो “डिफॉल्ट सेटिंग” बन चुके हैं, जिसे बदलना गठबंधन दलों के लिए भी उतना ही मुश्किल है जितना एक पुराना पासवर्ड याद रखना। इस विश्लेषण का सार यही नहीं कि नीतीश फिर मुख्यमंत्री बनेंगे। असली बात ये है क्यों हर संकट, हर चुनाव, हर उठापटक के बाद वही वापस आते हैं? और क्यों इस बार भी कोई दूसरा चेहरा विकल्प नहीं माना गया? आइए जानते है पॉइंट्स में...

पहला प्वाइंट

२०२५ के बिहार विधानसभा चुनावों में NDA ने २०२ सीटें जीतकर मैदान साफ कर दिया। इतनी बड़ी जीत के बाद BJP चाहती तो मुख्यमंत्री पद के लिए नया नाम आगे बढ़ा सकती थी। लेकिन बीजेपी और पूरा गठबंधन जानते हैं बिहार में सत्ता नंबरों पर नहीं, नेटवर्क पर चलती है। और नेटवर्क? वो नीतीश का ही है। जहाँ-जहाँ जाति समीकरण बदलता है, वहाँ-वहाँ नीतीश की पकड़ है। जहाँ-जहाँ गठबंधन को संतुलन चाहिए, वहाँ-वहाँ उनका चेहरा “कनेक्टिंग वायर” की तरह काम करता है। बड़ी जीत के बाद नई बुनियाद डालना आसान होता है, लेकिन बिहार में नई बुनियाद डालना उतना ही जोखिम भरा है जितना मानसून में घर की छत बदलना। इसलिए NDA को समझ आया  
“पुरानी छत ही सबसे सुरक्षित है।”

दूसरा पॉइंट - नीतीश का राजनीतिक कौशल

किसी भी मुख्यमंत्री की लंबी इनिंग सिर्फ प्रशासन से नहीं चलती चलती है समाज के हर वर्ग को अपने साथ बाँधकर। नीतीश इस खेल में पुराने खिलाड़ी नहीं, आइकन हैं। यादव वोट RJD का है सवर्ण वोट BJP का है लेकिन EBC, कुर्मी, महादलित, कुछ ओबीसी ये सब नीतीश की बुनियादी पूंजी हैं और बिहार की राजनीति में यही वर्ग सरकार बनाते भी हैं, गिराते भी हैं। नीतीश इस बात को जानते हैं कि बिहार में सिर्फ वोट बंटते नहीं, भावनाएँ भी बंटती हैं और वो दोनों को जोड़ने की कला में फिट बैठते हैं। इसलिए चुनाव का समीकरण चाहे जैसा भी हो, गठबंधन का जोड़-घटाव चाहे जैसा भी हो नीतीश हर बार “सबसे सुरक्षित औसत” बन जाते हैं।

तीसरा प्वाइंट - चुनौतियों की रफ्तार और नीतीश की स्टेडी हैंडलिंग

चुनौतियाँ बिहार में कभी कम नहीं होतीं लेकिन नीतीश की राजनीतिक मेज़ पर एक खास चीज़ है: तुरंत एडजस्टमेंट की क्षमता। बेरोज़गारी बढ़ी? वो “स्किल डेवलपमेंट” की बात करने लगते हैं। कानून व्यवस्था पर सवाल उठा?  वो पुलिस सुधारों की याद दिलाते हैं। जातिगत समीकरण बिगड़ा? वो गठबंधन शिफ्ट कर देते हैं। गठबंधन अस्थिर?  वो नई सरकार बना देते हैं। उनका सबसे बड़ा स्किल यही है “झटका पड़े तो गिरो मत, दिशा बदल लो।” नीतीश को देखकर समझ आता है कि राजनीति में स्थिर वही रहता है जो स्थिर दिखता नहीं जो हर समय खुद को री-सेट करता रहे।

चौथा पॉइंट - विपक्ष की कमजोरी 

जब तक विपक्ष मजबूत न हो, सत्तापक्ष को चेहरे की चिंता नहीं होती। इस बार महागठबंधन, RJD, और छोटे दल सब अपनी जमीन बचाने में लगे रहे। संदेश साफ था “लोग बदलाव चाहते हैं, लेकिन जोखिम नहीं।” जब जनता को भरोसा नहीं होता कि नया चेहरा डिलीवर कर पाएगा, तब वो स्टेबल और कम विवादित चेहरे की तरफ लौटती है। इस बार फिर यही हुआ। RJD ने अपनी परंपरागत सीटें भी नहीं बचा पाई, और महागठबंधन की हवा पहले से कमजोर थी। ऐसे में NDA के भीतर भी यह बात चल पड़ी “अगर जनता भरोसा पुरानी कुर्सी पर कर रही है, तो हम क्यों नहीं?”

पांचवा प्वाइंट - क्यों कोई दूसरा नाम नहीं?

गठबंधन राजनीति की सबसे बड़ी सच्चाई चेहरा वही जो सभी को मंजूर हो बिहार में गठबंधन चलाना उतना आसान नहीं जितना नंबर देखकर लगता है। JD(U) + BJP + छोटे दल—इन सबको जोड़कर एक ऐसी सरकार चाहिए जो कम से कम ५ साल टिक सके।

अब इसमें नए मुख्यमंत्री के आने से ये खतरे बढ़ जाते भीतरखाने की खींचतान जातिगत समीकरण का असंतुलन जनता की असहजता राजनीतिक ट्रायल-एंड-एरर का जोखिम नीतीश कुमार इस प्रणाली के सबसे भरोसेमंद गियर हैं। उन्हें हटाना मतलब मशीन को ओवरहॉल पर भेजना और चुनाव के तुरंत बाद कोई पार्टी ये रिस्क नहीं लेती।

छठवां प्वाइंट - दसवीं बार का मतलब क्या है?

सिर्फ रिकॉर्ड नहीं, बल्कि सत्ता की मनोवैज्ञानिक जीत नीतीश का दसवीं बार मुख्यमंत्री बनना यूँ ही नहीं है ये संकेत है कि बिहार में स्थिरता यानी प्रयोग है। ये भी संकेत है कि बिहार की राजनीति में अनुभव का वज़न अभी भी जनादेश से अधिक निर्णायक है। और सबसे बड़ा संदेश? “नीतीश विकल्प नहीं, व्यवस्था हैं।”
वो सिर्फ एक नेता नहीं वो वह पेंच हैं जिसे घुमाकर हर सरकार फिट की जा सकती है। वो सत्ता का “सुरक्षित मोड” हैं, जिसे जरूरत पड़ने पर हर गठबंधन ऑन कर लेता है। इसलिए यह सिर्फ “दसवीं बार” नहीं है यह २० सालों के निचोड़ का वो फैसला है जिसने नीतीश को फिर से बिहार का “सेंट्रल पिलर” बना दिया। ऐसे ही डीप एनालिसिस और पॉलिटिकल खबरों के लिए सब्सक्राइब करें ग्रेट पोस्ट न्यूज़।

 

2 )  रोहिणी आचार्या के आरोपों ने सत्ता, घर और रिश्तों तीनों में दरारें खोल दीं

 बीते कुछ दिनों में हुई घटनाओं ने स्पष्ट कर दिया है कि RJD की चुनावी हार सिर्फ एक राजनीतिक पराजय नहीं थी, बल्कि उसने परिवार के भीतर दबी आग को भी भड़काया। यह आग रोहिणी आचार्या के सार्वजनिक आरोपों के रूप में पूरे देश के सामने आ खड़ी हुई। रोहिणी आचार्या वही बेटी जिसने अपने पिता को किडनी देकर उनका जीवन बचाया उन्होंने सोशल मीडिया पर जो कहा, वह किसी क्षणिक गुस्से का परिणाम नहीं लगता, बल्कि गहरे चोटिल विश्वास का संकेत देता है। उन्होंने लिखा कि चुनाव परिणामों के बाद उन्हें घर में अपमानित किया गया, उनका सम्मान तोड़ा गया, और आखिरकार उन्हें मायके से निकलना पड़ा। उनके शब्दों में निराशा, गुस्सा और थकान तीनों साफ दिखे।
उन्होंने आरोप लगाया कि परिवार के कुछ सदस्य और तेजस्वी यादव के नज़दीकी लोग लगातार उन्हें निशाना बना रहे थे। बात इतनी आगे बढ़ गई कि उनके द्वारा लालू यादव को दी गई किडनी तक पर व्यंग्यात्मक व कटु टिप्पणियाँ की गईं। यह आरोप अपनी जगह पर कितना सच है, इसकी पुष्टि तो पारिवारिक स्तर पर ही हो सकती है, लेकिन यह साफ है कि अंदर तनाव का स्तर असामान्य रूप से बढ़ चुका था। परिवार की राजनीति और निजी रिश्तों के बीच की रेखा धुंधली पड़ गई थी। मामले को और जटिल वह घटनाएँ बनाती हैं, जिनमें रिपोर्ट्स के अनुसार लालू यादव की अन्य बेटियाँ रागिनी, चंदा और राजलक्ष्मी भी बच्चे लेकर पटना आवास छोड़कर दिल्ली चली गईं। यह कदम सामान्य नहीं है। यह सिर्फ असहमति नहीं, बल्कि गहरे स्तर की असुविधा और मोहभंग को दर्शाता है। एक बड़े राजनीतिक परिवार का सामूहिक रूप से टूटकर बिखरना किसी भी राजनीतिक दल के लिए गंभीर संकेत है, खासकर तब, जब पार्टी पहले ही चुनावी झटके से उबरने के लिए संघर्ष कर रही हो।

इस बीच तेजस्वी यादव जो बिहार में विपक्ष की सबसे प्रमुख आवाज माने जाते हैं उन्होंने रोहिणी के आरोपों पर कोई खुला बयान नहीं दिया। न ही राबड़ी देवी की ओर से स्पष्टीकरण आया। लालू यादव की खामोशी भी ध्यान खींचती है। यह खामोशी बताती है कि भीतर कुछ ऐसा है जिसे परिवार सार्वजनिक रूप से संबोधित नहीं करना चाहता, या फिर अभी समय नहीं आया है। लेकिन जनता के बीच फैल चुकी खबरों ने इस खामोशी को और भारी बना दिया है। परिवार के भीतर इस स्तर का मतभेद तब सामने आया है जब बिहार की राजनीति लगातार बदल रही है। RJD की हार, संगठनात्मक असंतुलन, आरोप-प्रत्यारोप और रणनीति में असहमतियाँ पहले से ही उभर रही थीं। अब रोहिणी के आरोपों ने इन टूटनों को और उजागर कर दिया है। सवाल यह भी है कि क्या आने वाले समय में ये मतभेद राजनीतिक फैसलों, पार्टी की दिशा और तेजस्वी की नेतृत्व शैली को प्रभावित करेंगे।
यह घटना अचानक नहीं हुई है। यह लंबे समय से जमा तनाव का विस्फोट है और फिलहाल इस विस्फोट के बाद की चुप्पी सबसे ज्यादा अस्थिर करने वाली है। स्थिति अभी अनिश्चित है। आने वाले बयान, संभावित बातचीत, या किसी भी परिवर्तन से यह मामला और बड़े रूप में सामने आ सकता है।