देश जब चुनावी शोर में गूंज रहा था, तब पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद में लहू बह रहा था। वक्फ संशोधन कानून के विरोध के नाम पर जिस आग की लपटें उठीं, वो न सिर्फ संविधान को झुलसाने वाली थीं, बल्कि इस सवाल को भी खड़ा करती हैं कि क्या बंगाल अब भी भारत का ही हिस्सा है ? राज्य सरकार ने खुद कलकत्ता हाईकोर्ट में माना कि उस दिन मुर्शिदाबाद में करीब 10,000 लोगों की भीड़ इकट्ठा हो गई थी। भीड़ नहीं कह सकते, वो तो मानो हथियारबंद सेना थी जिसने मौके पर मौजूद पुलिसकर्मियों पर हमला कर दिया, ईंट-पत्थर बरसाए और यहां तक कि SDPO की ग्लोक पिस्तौल छीन ली! जी हां, एक राज्य में जहां मुख्यमंत्री को खुद को संविधान की रखवाली का जिम्मेदार मानना चाहिए, वहां पुलिस की पिस्तौल छिन जाती है और सरकारी गाड़ियां फूंक दी जाती हैं। सरकार ने अपनी रिपोर्ट में माना है कि कम से कम 10 लोग ऐसे थे जिनके पास घातक हथियार थे। सवाल ये है कि इतने हथियार कहां से आए? और क्या यह सब पूर्व नियोजित नहीं था?
सबसे पहले, PWD ग्राउंड पर हजारों की भीड़ जुटाई गई। फिर भीड़ का एक हिस्सा अलग होकर उमरपुर की ओर कूच कर गया और सीधे नेशनल हाईवे जाम कर दिया। इसके बाद जो हुआ, वो ‘शांतिपूर्ण प्रदर्शन’ नहीं बल्कि एक योजनाबद्ध हमला था। गालियां, पत्थरबाजी और फिर पुलिस की गाड़ियों को आग के हवाले कर देना ये सब कुछ अचानक नहीं होता। SDPO का ग्लोक पिस्तौल छीना गया, सरकारी गाड़ी फूंक दी गई। पुलिस ने जब नॉन-लेथल हथियारों से हालात काबू करने की कोशिश की, तो भीड़ और उग्र हो गई। फिर रिइन्फोर्समेंट टीम पहुंची, NH को दो टीमों में बंटकर चार घंटे बाद साफ किया गया। इस हिंसा में तीन लोगों की जान चली गई। जाफराबाद में एक पिता-पुत्र की बर्बर हत्या कर दी गई। अब इस हत्याकांड में मुख्य आरोपी इंजामुल हक की गिरफ्तारी हुई है। पुलिस के मुताबिक, यह हत्या पूरी साजिश के तहत की गई थी। सवाल यह है कि धार्मिक कानून के विरोध में बेकसूरों का खून क्यों बहा?पीरजादा सनाउल्लाह सिद्दीकी ने सुप्रीम कोर्ट में कहा – "वक्फ संशोधन संविधान के खिलाफ है… ये हक छीना गया है… सिर्फ मुसलमान नहीं, हर धर्म के लोगों ने याचिका डाली है।” लेकिन इसी संवैधानिक लड़ाई के नाम पर अगर आगजनी और हत्या होगी, तो कौन जिम्मेदार होगा? मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कोलकाता में इमामों को संबोधित करते हुए हिंसा की बात स्वीकारी – लेकिन साथ ही कहा कि मालदा कांग्रेस की सीट है, वो हालात संभाल नहीं पाए। क्या यह बयान जिम्मेदारी से भागने की कोशिश है? जब खुद आपके विधायकों के घर जलाए जा रहे हैं, तब क्या सिर्फ बयानबाज़ी काफी है? एक स्थानीय नागरिक का बयान है की – “दंगा भड़काने वाले बाहरी लोग थे। उन्होंने मंदिरों और हिंदुओं के घरों पर हमला किया।” अगर यह सच है, तो ये सिर्फ सांप्रदायिक दंगा नहीं, एक सुनियोजित विद्वेषपूर्ण ऑपरेशन है। सोचिए, जब एक भारतीय सैनिक के घर पर हमला होता है, और वो डरकर मिलिट्री स्टेशन में फोन करता है – “दंगाई आ गए हैं, घर जलाने वाले हैं।” और 30 मिनट में सेना की QRT पहुंचती है और घर बचाती है, तो यह सिर्फ आग बुझाना नहीं था – यह लोकतंत्र की राख से देशभक्ति की लौ जलाना था। जब सेना को खुद हेल्पलाइन सेंटर बनाना पड़ता है ताकि उनके जवान और परिवार हिंसा से बचें, तो ये सिर्फ "पब्लिक सर्विस" नहीं, राज्य सरकार की पब्लिक फेलियर का सबसे बड़ा सबूत होता है।
बीजेपी सांसद जगन्नाथ सरकार ने गृहमंत्री अमित शाह से हस्तक्षेप की मांग की। उन्होंने कहा, "ममता की पुलिस नाकाम है, हिंदुओं को पलायन करना पड़ रहा है।" अब असली सवाल... क्या वक्फ कानून के विरोध की आड़ में धार्मिक विद्वेष फैलाया गया? क्या सरकार इस हिंसा के असली मास्टरमाइंड को पकड़ पाएगी? क्या पुलिस की लाचारी, पिस्तौल छिनना और सैनिक के घर पर हमला इन सबका कोई जवाबदेह है? क्या हम सचमुच एक लोकतांत्रिक देश में रह रहे हैं या अब भीड़तंत्र की सरकारें बनने लगी हैं? यह सिर्फ बंगाल की बात नहीं, ये देश के लोकतांत्रिक स्वास्थ्य पर सबसे बड़ा हमला है।
वैश्विक अर्थव्यवस्था की नसों में फिर से हलचल है। अमेरिका और चीन के बीच छिड़ी ट्रेड वॉर की नई किस्त ने न सिर्फ दोनों देशों की सरकारों को चौंकाया है, बल्कि भारत जैसे उभरते बाजारों को भी हिलाकर रख दिया है। मामला दरअसल अमेरिका के उस फैसले से शुरू हुआ जिसमें चीन पर टैरिफ बढ़ाकर 245% कर दिए गए। अमेरिका का दावा है कि यह कदम चीन की "आक्रामक टैरिफ नीति" का जवाब है। जवाब में चीन ने भी दो टूक कहा – "अगर अमेरिका टैरिफ नंबर गेम खेलता रहा, तो हम भी ध्यान नहीं देंगे।" और इसी बीच दुनिया की बाकी अर्थव्यवस्थाएं सांसें रोके बैठी हैं – कि ये दो हाथी लड़ते रहें, लेकिन हम घास न बन जाएं!अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने तो गुरुवार को एक कदम और आगे बढ़ते हुए टैरिफ को अमेरिका की आर्थिक क्रांति की चाबी बता डाली। इतालवी प्रधानमंत्री जियोर्जिया मेलोनी के साथ बैठक में उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा – “हमें कोई जल्दी नहीं है। टैरिफ हमें अमीर बना रहे हैं। बाइडेन के अधीन तो हम पैसे खो रहे थे। मेलोनी भले ही ट्रंप के साथ गर्मजोशी से मिलीं, लेकिन टैरिफ पर उनका मन बदलना शायद उतना ही कठिन था जितना अमेरिका को जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार ठहराना। ट्रंप की आक्रामक मुद्रा से यूरोपीय यूनियन भी नहीं बचा। उन्हें फिलहाल EU पर लगाए 20% टैरिफ को 90 दिनों के लिए रोकना पड़ा, लेकिन 10% का ‘बेसलाइन चार्ज’ अभी भी लागू है। यह आंशिक राहत बॉन्ड मार्केट की घबराहट के बाद मजबूरी में दी गई लगती है उधर, शंघाई की सड़कों पर कहानी बिल्कुल अलग है। वहां के स्नैक स्ट्रीट पर पीली-नीली वर्दी में खड़े डिलीवरी बॉय न तो टैरिफ समझते हैं और न ही ट्रंप-बाइडेन का अर्थशास्त्र। वे बस इतना जानते हैं – कीमतें गिर रही हैं, काम अस्थायी है और आर्थिक भविष्य धुंधला होता जा रहा है। चीन की अर्थव्यवस्था डिफ्लेशन के चक्रव्यूह में फंसी हुई है। अंडे से लेकर ई-कॉमर्स मील्स तक – सब कुछ सस्ता होता जा रहा है, लेकिन कम कीमतों का यह खेल कंपनियों के मुनाफे और कर्मचारियों की तनख्वाह दोनों को खा रहा है।