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Breaking News 16 September 2025

1.)Unite The Kingdom मार्च: लाखों लोग क्यों उतरे सड़कों पर?

लंदन पिछले हफ़्ते से अशांति का चेहरा बन गया है। 13 सितम्बर को राजधानी की सड़कों पर जो दृश्य देखने को मिला, उसने ब्रिटेन ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया को चौंका दिया। यह कोई छोटा-मोटा धरना नहीं। बल्कि “Unite the Kingdom” मार्च जहाँ एक लाख से ज़्यादा लोग जुटे। हाथों में बैनर, नारों में ग़ुस्सा और दिमाग़ में डर सबका एक ही पैग़ाम था: “माइग्रेशन रोक दो, नावें बंद करो।

यह ग़ुस्सा कहाँ से जन्मा?

असल में, पिछले कुछ सालों से इंग्लिश चैनल के रास्ते नावों में बैठकर हज़ारों शरणार्थी ब्रिटेन पहुँच रहे हैं। इनमें युद्ध, गरीबी और असुरक्षा से भागे लोग शामिल हैं। लेकिन लोकल लोगों का तर्क है कि इससे नौकरियाँ छीनी जा रही हैं, हेल्थ सिस्टम पर बोझ बढ़ रहा है और हाउसिंग संकट गहराता जा रहा है। यह असंतोष धीरे-धीरे इतना गाढ़ा हो गया कि लोगों ने इसे गली-मोहल्लों से निकालकर सड़कों पर ले आया। लेकिन यहाँ सिर्फ़ वास्तविक समस्या नहीं है। सोशल मीडिया ने इसमें पेट्रोल डालने का काम किया। किसी अपराधी का केस हो जाए, तो तुरंत उस आरोपी को “शरणार्थी” या “मुस्लिम माइग्रेंट” बताकर वायरल कर दिया जाता है। चाहे सच्चाई कुछ भी हो, पर भीड़ के बीच डर और ग़ुस्से को हवा मिल जाती है। ये आंदोलन सिर्फ़ आम लोगों का स्वतःस्फूर्त ग़ुस्सा नहीं है। ब्रिटेन के कट्टर-दाएँ और राष्ट्रवादी समूहों ने इस आग को हवा दी। टॉमी रॉबिन्सन जैसे चेहरों ने “देश बचाओ” का नारा देकर भीड़ को संगठित किया। फेसबुक ग्रुप्स, टेलीग्राम चैनल और X पर लगातार मैसेज फैलाए गए “आओ, राजधानी में दिखाओ ताक़त।” और नतीजा यह हुआ कि एक लाख से ज़्यादा लोग एकसाथ सड़क पर उतर आए। इस भीड़ को देखकर साफ़ समझ आता है कि आजकल आंदोलन केवल ज़मीन से नहीं, बल्कि मोबाइल स्क्रीन से पैदा होते हैं। 13 सितंबर की सुबह से ही भीड़ वेस्टमिन्स्टर और ट्राफलगर स्क्वायर के आसपास इकट्ठा होने लगी। पुलिस ने बैरिकेड्स लगाए, लेकिन जब भीड़ का समंदर उमड़ता है, तो काबू करना मुश्किल हो जाता है। झड़पें हुईं। 26 पुलिसकर्मी घायल हुए, कई गंभीर। 25 से ज़्यादा गिरफ्तारियाँ हुईं। दूसरी तरफ़, “Stand Up To Racism” जैसे समूह भी लगभग 5 हज़ार लोगों के साथ विरोध दर्ज कराने आए। यानी लंदन की सड़कों पर उस दिन दो तस्वीरें थीं एक तरफ़ “माइग्रेशन हटाओ,” दूसरी तरफ़ “नफ़रत हटाओ।” और बीच में पुलिस पिसती रही। लंदन का विशाल मार्च भले ही । लंदन सिर्फ़ ब्रिटेन की राजधानी नहीं, बल्कि दुनिया की नज़र में उसका चेहरा है। यहाँ विरोध करो, तो दुनिया देखती है। शायद इसी वजह से आयोजकों ने राजधानी को चुना। पर यह आंदोलन सिर्फ़ लंदन तक सीमित नहीं रहा। जुलाई 2025 से मैनचेस्टर, लिवरपूल, नॉरविच, एप्पिंग जैसे कई शहरों में यही विरोध जारी है। हर जगह एक पैटर्न स्थानीय होटल या अस्थायी आश्रय केंद्र में शरणार्थियों का रहना, लोकल लोगों की नाराज़गी और फिर विरोध। यानी लंदन का ये मार्च दरअसल पूरे देश की बेचैनी का प्रतीक है। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री कीर स्टार्मर ने कहा कि शांतिपूर्ण विरोध करना सबका अधिकार है, लेकिन पुलिस पर हमला और जातीय नफ़रत फैलाना अस्वीकार्य है। सरकार दावा कर रही है कि माइग्रेशन को कंट्रोल करने की योजनाएँ बनाई जा रही हैं। लेकिन विपक्ष और दाएँ पंथी समूह कह रहे हैं कि यह नाकाफ़ी है।
यहां राजनीति भी खुलकर खेली जा रही है। माइग्रेशन को “राष्ट्रीय सुरक्षा” और “संस्कृति बचाओ” जैसे नारों से जोड़ा जा रहा है। असली मुद्दे बेहतर हेल्थकेयर, शिक्षा और नौकरियाँ पीछे छूट जाते हैं, और सामने रह जाता है डर और नफ़रत का एजेंडा।
भारतीय और एशियाई मूल के लोग कह रहे हैं कि अब उन्हें भी असुरक्षा महसूस होती है। यह आंदोलन सीधे-सीधे “मुसलमानों” या “माइग्रेंट्स” को टार्गेट करता है, लेकिन असर बाकी प्रवासी समुदायों पर भी पड़ रहा है। दुकानों और मोहल्लों में यह डर फैल रहा है कि भीड़ कभी भी हमला कर सकती है।

यह वैश्विक ट्रेंड क्यों बन रहा है?

यह सवाल सिर्फ़ ब्रिटेन का नहीं। यूरोप, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया हर जगह यही तस्वीर। वजहें साफ़ हैं: युद्ध और जलवायु संकट से मजबूर लोग पलायन कर रहे। लोकल सेवाएँ दबाव में हैं हाउसिंग, स्कूल, हॉस्पिटल सब बोझ झेल रहे। पॉलिटिकल पार्टियाँ इस डर को वोट बैंक में बदल रही हैं। सोशल मीडिया एक शहर की तस्वीर को दूसरे शहर में आग बना देता है। आगे का रास्ता? सवाल यह है क्या यह आंदोलन रुक जाएगा? शायद नहीं। जब तक सरकार माइग्रेशन नीति पर ठोस और पारदर्शी क़दम नहीं उठाती, और जब तक सोशल मीडिया अफवाहें पर लगाम नहीं लगतीं, तब तक यह लहर रुकने वाली नहीं। बल्कि ख़तरा यह है कि यह आंदोलन और ज़्यादा उग्र हो सकता है और ब्रिटेन के सामाजिक ताने-बाने को और तोड़ सकता है। ऐसे ही देश दुनिया की खबरों के लिए जुड़े रहे हमसे और सब्सक्राइब करे।

 

2.) Thumbnail: The Extraordinary Rise of Narendra Modi

17 सितंबर। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी का जन्मदिन। एक तरफ़ वे दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक व्यवस्था का नेतृत्व कर रहे हैं, दूसरी तरफ़ उनका बचपन एक छोटे से कस्बे वाडनगर में गरीबी और संघर्ष के बीच गुज़रा। यही विरोधाभास उनकी जीवनी को दिलचस्प बनाता है। राजनीति से इतर, मोदी जी की ज़िंदगी के ऐसे कई पहलू हैं जो कम ही सामने आते हैं। और इन्हीं से समझ आता है कि प्रधानमंत्री जी का व्यक्तित्व कैसे बना। प्रधानमंत्री जी को बचपन से ही पढ़ने का शौक था। वाडनगर की लाइब्रेरी में वे घंटों बिताते। किशोरावस्था में स्वामी विवेकानंद की शिक्षाओं ने उन पर गहरा असर डाला। यही वजह रही कि 17-18 साल की उम्र में उन्होंने देशभर की यात्राएँ कीं। रेलवे प्लेटफॉर्म पर सोए, साधुओं के बीच रहे और हिमालय की गुफाओं में समय बिताया। ये यात्राएँ उन्हें सिर्फ़ भौगोलिक ही नहीं, बल्कि वैचारिक तौर पर भी बड़ा बनाती गईं। मोदी जी के जीवन में RSS और लक्ष्मणराव इनामदार (वकील साहब) का ज़िक्र अहम है। RSS में जुड़ने के बाद उन्होंने अनुशासन, संगठन और ज़मीनी राजनीति के सबक सीखे। इनामदार जी उनके गुरु बने, जिन्होंने समझाया कि राजनीति सिर्फ़ भाषण नहीं, बल्कि संगठन की मज़बूती पर टिकती है मोदी जी ने दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में स्नातक और बाद में गुजरात विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में परास्नातक किया। पढ़ाई औपचारिक रही, लेकिन उनका असली विश्वविद्यालय ज़मीन पर मिला अनुभव था। 1987 में भाजपा से औपचारिक जुड़ाव हुआ। 2001 में गुजरात के मुख्यमंत्री बने और 2014 में भारत के प्रधानमंत्री। मुख्यमंत्री रहते हुए मोदी जी ने गुजरात में उद्योग, अवसंरचना और निवेश पर ज़ोर दिया। लेकिन आलोचकों का कहना है कि शिक्षा, स्वास्थ्य और पोषण जैसे सामाजिक क्षेत्रों में गुजरात की रैंकिंग उतनी नहीं सुधरी जितनी आर्थिक मोर्चे पर। उदाहरण के लिए, 2013 तक गुजरात शिक्षा में 29 राज्यों में 21वें स्थान पर था और पाँच साल से कम उम्र के बच्चों में कुपोषण दर चिंताजनक बनी रही। यानी विकास की तस्वीर संतुलित नहीं थी। प्रधानमंत्री जी का बचपन का घर महज़ 40×12 फीट का एक कमरा था। स्कूल में वे बहस और नाटकों में हिस्सा लेते थे, जिससे भाषण और पब्लिक स्पीकिंग की आदत बनी। 1965 में भारत-पाक युद्ध और 1967 की गुजरात बाढ़ में वे स्वयंसेवक बने। जूतों पर चाक की परत चढ़ाना या स्टेशन पर यात्रियों की सेवा करना ये छोटी-छोटी बातें आज भी उनके व्यक्तित्व में अनुशासन और आत्मनिर्भरता के रूप में झलकती हैं।

 कोई समर्थन करता है, कोई कड़ा विरोध। लेकिन इतना तय है कि उनका बचपन, उनकी यात्राएँ और संगठनात्मक अनुभव ही आज के प्रधानमंत्री मोदी की नींव हैं। यही वो बातें हैं जो उनके जन्मदिन पर हमें याद दिलाती हैं कि भारत की राजनीति में सबसे बड़े पद तक पहुँचने वाला इंसान कभी स्टेशन पर चाय बेचने वाला बच्चा भी था। ऐसे ही प्रेरणादायक खबरों के लिए सब्सक्राइब करे ग्रेट पोस्ट न्यूज़।

 

3 ) देहरादून से हिमाचल तक तबाही की दास्तान

कभी जिन पहाड़ों को हम ‘देवभूमि’ कहते थे, वही अब त्रासदी की धरती बन गए हैं। कहीं पिता अपनी बेटी को मलबे से ढूँढ रहा है, कहीं किसान अपनी बर्बाद फसल देखकर रो रहा है। आसमान से फटते बादलों ने देवताओं के घरों को भी नहीं बख़्शा। देहरादून, उत्तरकाशी, हिमाचल हर जगह ज़िंदगी और मौत के बीच सिर्फ़ एक बारिश खड़ी है। देहरादून के सहस्रधारा और टपकेश्वर मंदिर क्षेत्र में तांसा नदी ने ऐसा कहर ढाया कि पूरी घाटी चीख़ उठी। मंदिर का आँगन पानी में समा गया, होटल और दुकानें बहाव में आ गए, कई लोग लापता हैं। रातभर SDRF की टीम ने टॉर्च की रोशनी में लोगों को निकाला। जिन जगहों पर कल तक धार्मिक गीत गूँजते थे, आज वहाँ पानी की गड़गड़ाहट और लोगों की चीख़ सुनाई दे रही है। अगस्त की शुरुआत में उत्तरकाशी का धाराली गाँव मौत की घाटी बन गया। एक ही रात में दर्जनों मकान और होटल बह गए। दुकानदार हाथ में सिर्फ़ अपनी टूटी दुकान की चाबी पकड़े खड़ा रह गया, लेकिन दुकान कब की नदी में समा चुकी थी। प्रशासन ने पुष्टि की कि 5 से ज़्यादा लोगों की जान गई और कई लापता हैं। ये वही इलाका है जो गंगोत्री धाम के रास्ते पर पड़ता है, जहाँ हर साल लाखों यात्री आते हैं। धाराली की ये तबाही हमें 2013 की केदारनाथ त्रासदी की याद दिलाती है, जब हज़ारों लोग लापता हुए थे। लेकिन 12 साल बाद भी तस्वीर वही है नदियाँ बेकाबू, पहाड़ कमजोर और इंसान बेबस। हिमाचल के बिलासपुर ज़िले के गुटराहन और नम्होल इलाके में बादल फटने से गाँव का नक्शा बदल गया। खेतों में खड़ी फसल मिट्टी समेत बह गई। कई वाहन मलबे में दब गए। लोग रातभर घर छोड़कर सुरक्षित जगहों पर शरण लेते रहे। गनीमत ये रही कि इस बार बड़ी संख्या में जानें नहीं गईं, लेकिन आर्थिक नुकसान इतना गहरा है कि किसान सालों तक इससे उबर नहीं पाएंगे। राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के मुताबिक, सिर्फ़ 2023-24 में हिमाचल में क्लाउडबर्स्ट और भूस्खलन से 4,000 करोड़ रुपये से ज़्यादा का नुकसान हुआ। इस साल भी हालात अलग नहीं हैं।

आंकड़े और चेतावनी

उत्तराखंड में हर साल औसतन 30–40 क्लाउडबर्स्ट होते हैं। IMD के रिकॉर्ड बताते हैं कि पिछले 20 सालों में इनकी संख्या दोगुनी हो गई है। 1951 से 2020 तक भारत में क्लाउडबर्स्ट की घटनाएँ 150% बढ़ीं। सबसे ज़्यादा असर हिमालयी राज्यों उत्तराखंड, हिमाचल और जम्मू-कश्मीर में देखा गया। ये आंकड़े साफ़ कहते हैं कि बादल फटना अब “अचानक” होने वाली घटना नहीं, बल्कि एक नियमित आपदा बन चुका है। हर बार की तरह इस बार भी सरकार कह रही है “रेस्क्यू चल रहा है, टीमें मौके पर हैं।” लेकिन सवाल ये है कि प्रीवेंशन कहाँ है? सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में कहा था कि हिमालयी क्षेत्रों में अंधाधुंध निर्माण रोका जाए। लेकिन आज भी नदियों के किनारे होटल खड़े हैं, पहाड़ों को काटकर सड़कें बन रही हैं और जंगलों को उजाड़कर बड़े प्रोजेक्ट चल रहे हैं। नतीजा । देहरादून का मंदिर, उत्तरकाशी का बाज़ार और हिमाचल का खेत तीनों एक ही बात कह रहे हैं पहाड़ अब और नहीं सह सकते। अगर अब भी चेतावनी नहीं मानी गई तो अगले साल ये कहानियाँ और डरावनी होंगी। और तब हम सबको मानना पड़ेगा कि ये आपदा सिर्फ़ "प्राकृतिक" नहीं, बल्कि "मानवजनित" है। ऐसे ही लेटेस्ट खबरों के लिए सब्सक्राइब करें ग्रेट पोस्ट न्यूज़।