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Breaking News 14 April 2025

1.) बिहार में चुनावी शंखनाद से पहले कांग्रेस ने बदली चाल

बिहार विधानसभा चुनाव की तारीख़ भले अभी घोषित न हुई हो, लेकिन कांग्रेस ने पहले ही चुनावी बिसात बिछानी शुरू कर दी है। सहयोगी राष्ट्रीय जनता दल (राजद) पर दबाव की रणनीति के तहत पार्टी ने केंद्रीय स्तर के दिग्गज नेताओं को बिहार में मोर्चा संभालने के लिए मैदान में उतार दिया है। कांग्रेस इस समय ‘चार्जशीट कार्यक्रम’ के जरिए नीतीश सरकार को अपराध और कानून व्यवस्था के मुद्दे पर घेरने की कोशिश में जुटी है। लेकिन राजनीतिक गलियारों में इसे राजद पर दबाव बनाने की रणनीति के रूप में देखा जा रहा है। बीते दो दशकों से राजद के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ने वाली कांग्रेस भले अकेले दम पर मैदान में न उतरे, लेकिन सीटों के बंटवारे में दबाव झेलने को तैयार नहीं है।

मैदान में उतर चुके हैं कई चेहरे

इस बार कांग्रेस ने प्रदेश नेतृत्व में बदलाव के साथ-साथ, राजद पर दबाव बनाने के लिए केंद्रीय नेताओं को ज़िम्मेदारी सौंपी है। पार्टी सूत्रों के मुताबिक, राहुल गांधी समेत लगभग 40 वरिष्ठ नेता बिहार में सक्रिय भूमिका निभा सकते हैं। इनमें रणदीप सुरजेवाला, मीरा कुमार, दिग्विजय सिंह, सचिन पायलट, अलका लांबा, सुप्रिया श्रीनेत्र, कन्हैया कुमार, कपिल सिब्बल, सलमान खुर्शीद, इमरान प्रतापगढ़ी, पवन खेड़ा, जयराम रमेश, जिग्नेश मेवाणी और कुमारी शैलेजा जैसे नाम शामिल हैं। राहुल गांधी बीते तीन महीनों में बिहार के तीन दौरे कर चुके हैं। वहीं सचिन पायलट, अलका लांबा, कन्हैया कुमार, पवन खेड़ा और जिग्नेश मेवाणी भी प्रदेश का दौरा कर चुके हैं। अगले कुछ महीनों में कई अन्य नेताओं के भी दौरे प्रस्तावित हैं। इसी कड़ी में कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे भी 20 अप्रैल को बिहार आ सकते हैं। पार्टी सूत्रों की मानें तो खरगे पटना के सदाकत आश्रम स्थित प्रदेश कांग्रेस मुख्यालय में प्रदेश अध्यक्ष और प्रभारी की मौजूदगी में अहम बैठक करेंगे। इससे एक दिन पहले, 19 अप्रैल को बक्सर में पार्टी की एक रैली प्रस्तावित है, जिसमें खरगे की संभावित भागीदारी को लेकर भी चर्चाएं जारी हैं। हालांकि, यह कार्यक्रम अभी औपचारिक रूप से तय नहीं हुआ है। कांग्रेस की यह सक्रियता सिर्फ एनडीए सरकार पर हमला नहीं, बल्कि गठबंधन में अपनी अहमियत को रेखांकित करने की कोशिश भी है। राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो कांग्रेस इस बार ‘सीटें सम्मानजनक होंगी, तभी गठबंधन होगा’ की नीति पर चल रही है।

 

2.) पश्चिम बंगाल जल रहा है.......

मुर्शिदाबाद, मालदा, हुगली और 24 परगना – ये वो ज़िले हैं जहां वक्फ कानून के खिलाफ सड़कों पर आक्रोश उतर आया। ट्रेनों को रोका गया, पुलिस की गाड़ियों में आग लगा दी गई, और सड़कें पत्थरों से पाट दी गईं। हिंसा की चिंगारी सियासत की हवा से शोला बनी और अब मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने उस आग के सामने आ खड़ी हुई हैं—बिल्कुल सीधे और साफ लफ्ज़ों में। “वक्फ कानून हमने नहीं बनाया, ये केंद्र सरकार की देन है। जब बंगाल में इसे लागू ही नहीं करना है, तो दंगे किस बात के?” यह कहना था ममता बनर्जी का, जिन्होंने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के ज़रिए न सिर्फ अपना रुख स्पष्ट किया, बल्कि दंगाइयों को खुली चेतावनी भी दी—"कानून हाथ में लेने वालों को बख्शा नहीं जाएगा।" मुख्यमंत्री का बयान न सिर्फ हालात पर नियंत्रण की कोशिश है, बल्कि केंद्र के पाले में गेंद फेंकने की चालाकी भी है। ममता ने जनता को समझाने की कोशिश की कि ये लड़ाई राज्य से नहीं, बल्कि उस सत्ता से है जिसने ये कानून बनाया है। "केंद्र से सवाल करो, हमें क्यों घेर रहे हो?"—उनका लहजा इसी नाराज़गी से भरा था। उन्होंने सभी धर्मों के लोगों से संयम बरतने की अपील करते हुए कहा “धर्म का मतलब मानवता है, न कि हिंसा। किसी भी धर्म में आग लगाना नहीं सिखाया जाता।” ममता ने सियासी दलों पर भी निशाना साधा जो, उनके मुताबिक, “धर्म का इस्तेमाल सियासत की सीढ़ी बनाने में लगे हैं।”

अब सवाल बड़ा है – दंगा किसकी साजिश है?

जब मुख्यमंत्री खुद कह रही हैं कि बंगाल में वक्फ कानून लागू नहीं होगा, तो फिर जनता को उकसाने वाला कौन है?
क्या यह गुस्सा वाकई कानून के खिलाफ है, या फिर यह गुस्सा सियासी स्क्रिप्ट का हिस्सा है? क्या लोगों को जानकारी के नाम पर भ्रम में डाला गया है? ममता बनर्जी का यह बयान सियासत के बीच फंसी जनता के लिए एक सिग्नल है “शांति ही रास्ता है, सियासत की आग में जलना नहीं।” अब देखना ये है कि ये अपील जनता तक पहुंचेगी या फिर राजनीति के शोर में दब जाएगी।
क्योंकि आग सिर्फ वक्फ की नहीं लगी है, भरोसे में भी दरार आ चुकी है।

 

3.)  डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के जिंदगी की अनसुनी बातें 

 

आज 14 अप्रैल है। भारत के एक बड़े तबके के लिए ये तारीख उम्मीद और बदलाव की लौ है, तो वहीं कुछ के लिए बस एक सरकारी छुट्टी।  हमने उन्हें किताबों में सीमित कर दिया, लेकिन क्या हम जानते हैं कि जब गांधी को लंदन में ‘रिलीजन लीडर’ की हैसियत से बुलाया गया, तो आंबेडकर को एक ‘पॉलिटिकल थिंकर’ और ‘इकनॉमिस्ट’ के रूप में आमंत्रित किया गया था? ये वही व्यक्ति थे, जिन्होंने सिर्फ संविधान नहीं लिखा, बल्कि “जाति” जैसे विषय पर भारत की सबसे साहसी किताब "Annihilation of Caste" लिखी, जो आज भी तमाम लोगों के लिए असहज सच्चाइयों से भरी हुई है। गांधी और आंबेडकर का वैचारिक टकराव इतिहास में कम चर्चित नहीं है, मगर हमने हमेशा गांधी को महान बना कर पेश किया और आंबेडकर को ‘दूसरे कोने’ में खड़ा कर दिया। पूना पैक्ट के समय गांधी ने आमरण अनशन की घोषणा की, जिससे आंबेडकर ने साफ कहा – यह एक इमोशनल ब्लैकमेल है। आंबेडकर का मानना था कि जाति को खत्म किए बिना सामाजिक न्याय की बात करना एक धोखा है। कम ही लोग जानते हैं कि डॉ. आंबेडकर ने भारत के राष्ट्रीय ध्वज में अशोक चक्र की जगह धम्म चक्र लाने की मांग की थी, क्योंकि वे मानते थे कि भारत की आत्मा धर्म नहीं, बल्कि न्याय है। वो ना तो कांग्रेस से जुड़े, ना ही आरएसएस के हिंदू राष्ट्र विचार से सहमत हुए। उन्होंने स्पष्ट कहा था कि हिंदू धर्म, स्वतंत्रता और समानता को नकारता है—इसमें सुधार की नहीं, बल्कि परिवर्तन की आवश्यकता है। यही वजह थी कि उन्होंने 14 अक्टूबर 1956 को लाखों लोगों के साथ बौद्ध धर्म स्वीकार किया। यह सिर्फ धर्म परिवर्तन नहीं था, बल्कि एक ऐतिहासिक विद्रोह था ब्राह्मणवादी सोच के खिलाफ। आंबेडकर ने ना केवल पिछड़ों और दलितों के लिए आरक्षण की वकालत की, बल्कि महिलाओं के अधिकारों के लिए भी वो सबसे पहले खड़े हुए। जब उन्होंने हिंदू कोड बिल संसद में पेश किया, जिसमें महिलाओं को संपत्ति, उत्तराधिकार और तलाक के अधिकार मिलने थे, तो इसे खारिज कर दिया गया। नतीजतन उन्होंने कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया—क्योंकि उनके लिए पद से ज़्यादा ज़रूरी था न्याय। 25 दिसंबर 1927 को जब उन्होंने मनुस्मृति दहन किया, तो ये केवल एक ग्रंथ जलाना नहीं था, बल्कि हजारों साल की परंपरागत गुलामी को चुनौती देना था। उन्होंने कहा था—“मैं हिंदू धर्म में पैदा जरूर हुआ हूँ, लेकिन हिंदू होकर मरूँगा नहीं।” और उन्होंने अपने जीवन के आखिरी समय में ये संकल्प पूरा किया। इतना ही नहीं, उन्होंने अर्थशास्त्र में पीएचडी की, कुल मिलाकर 32 डिग्रियां उनके पास थीं, और उनकी किताब "The Problem of the Rupee" ने रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया के विचार की नींव रखी।
और फिर वो दुखद भविष्यवाणी—"इस देश में मेरी मूर्तियों की पूजा होगी, विचारों की नहीं।" आज जब हर चौराहे पर उनकी मूर्तियां लगी हैं, क्या हम पूछ सकते हैं कि उनके विचार कहाँ हैं? क्या हमने उन पर सिर्फ राजनीति की है, या उन्हें सच में पढ़ा, समझा और जिया है? आज की तारीख सिर्फ एक श्रद्धांजलि देने का दिन नहीं है, ये दिन है सवाल करने का। क्या इस देश से जाति गई? क्या आज भी गांव उसी narrow-mindedness में जकड़े नहीं हैं, जिसकी आंबेडकर ने आलोचना की थी? क्या हम आज भी विचारों को उतना ही असहज मानते हैं जितना उन्होंने लिखा? जय भीम कहना आसान है, लेकिन आंबेडकर बनना मुश्किल।