चार्ली किर्क की हत्या के बाद अमेरिका का पॉलिटिकल और सोशल मीडिया एकदम अखाड़ा बन गया है। कोई कह रहा है ट्रम्प ने अपने ही आदमी को रास्ते से हटाया, तो कोई ताल ठोंक रहा है कि “ ये तो Left wing वालों का सपना पूरा हुआ।” X पर एक खेमे के लोग जश्न के मीम बना रहे हैं लेकिन अब ज़रा सच्चाई पर भी नज़र डाल लीजिए। पुलिस और FBI की आधिकारिक जांच कहती है कि गोलियां किसी rooftop से चलाई गईं। मौके से राइफल जैसी चीज़ें बरामद हुईं, forensic टीम सबूत समेट रही है। शूटर की तस्वीरें FBI ने खुद जारी की हैं और manhunt जारी है। यानी घटना सच है, गोली चली है और चार्ली की मौत हुई है । लेकिन conspiracy market गरम है। एक थ्योरी कहती है कि “अपने ही आदमी ने मारा।” सवाल ये है कि जब forensic रिपोर्ट साफ़ बता रही है कि हमला दूर से हुआ, तो भीड़ में घुसे “इनसाइडर” की कहानी क्यों बेची जा रही है? जवाब आसान है अफवाहों को तड़का लगाकर परोसा जाएगा, तभी सोशल मीडिया का algorithm खुश होता है। और फिर आते हैं “wo zinda hai” वाले लोग। इंटरनेट पर फैले कुछ धुंधले क्लिप्स, आधे-अधूरे सिग्नल और random लोगों की हँसी को जोड़कर कहा जा रहा है कि पूरी घटना फेक है। लेकिन, FBI की प्रेस ब्रीफिंग और ground से बरामद सबूत कह रहे हैं कि ये ऐसासिनेशन सच्ची है। हाँ, फुटेज को एडिट करके वायरल करना आसान है, मगर गोली की आवाज़ और forensic के निशान एडिट नहीं होते। असल समस्या ये है कि हर कोई अपनी राजनीतिक दुकान चमका रहा है। Left wing वाले कहेंगे “देखो, कुदरत ने सज़ा दी।” Right wing वाले चिल्लाएँगे “ये साज़िश है, हमें दबाने की कोशिश।” लेकिन जनता के लिए सबसे ज़रूरी सवाल ये होना चाहिए कि किसने गोली चलाई? किस मकसद से चलाई? और इस कदर नफ़रत की ज़मीन किसने तैयार की? बाक़ी दुनिया में चाहे जो चल रहा हो, सोशल मीडिया का नियम साफ़ है: “Fact देर से पहुँचता है, अफ़वाहें expressway से दौड़ती हैं।” ऐसे ही देश दुनिया की खबरों के लिए सब्सक्राइब करे ग्रेट पोस्ट न्यूज़।
नेपाल की सियासत इस वक्त किसी रणभूमि से कम नहीं दिख रही। संसद के गलियारों में अस्थिरता, सड़कों पर उबलती भीड़ और सोशल मीडिया पर Gen-Z का गुस्सा, सब मिलकर एक ऐसे दौर का गवाह बन रहे हैं जहाँ लोकतंत्र की डोर किसी बाल से लटकी हुई लग रही थी। और ठीक इसी वक्त अचानक उभरकर आया एक नाम सुशीला कार्की। वो नाम, जो पहले भी इतिहास लिख चुका था और अब फिर से लिख रहा है। नेपाल की सुप्रीम कोर्ट की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश रह चुकीं सुशीला कार्की अब देश की पहली महिला प्रधानमंत्री बन चुकी हैं। विराटनगर की गलियों में जन्मीं कार्की ने जिंदगी का सफर एक आम लड़की की तरह शुरू किया। त्रिभुवन यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन, फिर बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी से राजनीति शास्त्र में मास्टर्स और उसके बाद कानून की पढ़ाई—यहीं से उनकी असली यात्रा शुरू हुई। अदालतों की सीढ़ियाँ चढ़ते-चढ़ते वो उस मुकाम पर पहुँचीं, जहाँ से उनके फैसले पूरे सिस्टम को हिला सकते थे। 2016 से 2017 तक सुप्रीम कोर्ट की चीफ़ जस्टिस रहीं कार्की ने एक से बढ़कर एक कड़े फैसले दिए। वो भ्रष्टाचार पर डटकर बोलीं, नेताओं के खिलाफ कार्रवाई करने से कभी पीछे नहीं हटीं। इतना कि एक बार तो उन पर महाभियोग प्रस्ताव तक लाया गया—लेकिन सच कहिए, कार्की जैसी शख्सियत को डराने की ताक़त नेपाल की राजनीति में किसी में नहीं थी।
अब सवाल यही है देश में इतने नेता होते हुए, इतने पुराने चेहरे होते हुए, आखिर क्यों सुशीला कार्की को ही चुना गया? क्योंकि वो ईमानदारी की मिसाल हैं। क्योंकि वो तटस्थ चेहरा हैं, जिनका किसी पार्टी से सीधा नाता नहीं है। क्योंकि जनता नेताओं पर भरोसा खो चुकी थी और उन्हें एक ऐसे चेहरे की तलाश थी, जिसने कभी न्याय से समझौता न किया हो। और सबसे बड़ी बात क्योंकि वो महिला नेतृत्व की ताक़त का प्रतीक हैं। नेपाल की राजनीति में सालों से वही खेल चलता रहा सरकारें आती-जाती रहीं, गठबंधन टूटते-जुड़ते रहे, लेकिन जनता की उम्मीदें हर बार टूटीं। जब Gen-Z आंदोलन सड़कों पर फूटा और 50 से ज्यादा लोगों की जान गई, तब साफ हो गया कि जनता अब सिर्फ भाषणों से नहीं, बल्कि बदलाव से संतुष्ट होगी। ऐसे माहौल में राजनीतिक दलों को भी समझ आया कि अगर अब भी किसी भ्रष्ट या विवादित चेहरे को आगे किया गया, तो जनता और भड़क जाएगी। इसलिए सबने मिलकर एक नाम पर सहमति जताई सुशीला कार्की। सुशीला कार्की का प्रधानमंत्री बनना सिर्फ एक औपचारिक नियुक्ति नहीं, बल्कि एक उम्मीद है। उम्मीद कि भ्रष्टाचार की जड़ें काटी जाएंगी, उम्मीद कि चुनाव निष्पक्ष होंगे, उम्मीद कि सत्ता का खेल अब जनता के हक में बदलेगा। नेपाल की जनता आज उन्हें एक राजनेता की तरह नहीं, बल्कि एक न्यायप्रिय नेता के तौर पर देख रही है। वो जानती है कि कार्की किसी पार्टी की नहीं, बल्कि जनता की प्रधानमंत्री हैं।
एशिया कप 2025 का सबसे बड़ा मैच, 14 सितम्बर को दुबई में भारत और पाकिस्तान आमने-सामने होंगे। लेकिन ये मुकाबला सिर्फ बल्ले और गेंद का खेल नहीं रह गया, बल्कि ये देश की राजनीति, जनता की भावनाओं और अरबों-खरबों के बिज़नेस का महापर्व बन गया है। सवाल ये है क्या भारत पाकिस्तान से क्रिकेट खेले, तब जबकि पहलगाम में आतंक का ताज़ा ज़ख्म अभी भरा भी नहीं? BCCI का तर्क साफ है “हम सरकार की नीति मान रहे हैं। द्विपक्षीय सीरीज़ तो मना है, लेकिन मल्टी-टीम टूर्नामेंट में खेलना पड़ेगा।” यानी BCCI अपनी ज़िम्मेदारी सरकार पर डाल रहा है। लेकिन विपक्षी दल और सोशल मीडिया पर गुस्साई जनता पूछ रही है “नीति का बहाना है या पैसों का खेल?” क्योंकि इंडिया-पाक मैच का मतलब है रेकॉर्ड तोड़ TRP, विज्ञापनदाताओं की लाइन, और टिकटों की बम्पर बिक्री। यानी खिलाड़ियों की पिच पर 22 लोग खेलेंगे, मगर असली खेल मैदान के बाहर होगा जहाँ दौड़ेगा पैसा। दूसरी तरफ, हालात बेहद संवेदनशील हैं। पहलगाम के आतंकी हमले ने पूरे देश को झकझोर दिया। शहीदों के परिवार खुलेआम मांग कर रहे हैं कि भारत पाकिस्तान से कोई भी संबंध न रखे, चाहे वो क्रिकेट ही क्यों न हो। उनके लिए यह मैच “गेम” नहीं बल्कि “जख्म पर नमक” है। यही वजह है कि सोशल मीडिया पर #BoycottMatch ट्रेंड कर रहा है। लोग टिकट कैंसल करने, मैच न देखने और स्पॉन्सर का बहिष्कार करने तक की अपील कर रहे हैं। लेकिन पूरा देश एक ही सोच पर खड़ा नहीं है। एक तबका कह रहा है “क्रिकेट को राजनीति से अलग रखो। खिलाड़ी मैदान में अपना काम करेंगे, और हमें भी खेल को खेल की तरह देखना चाहिए।” इनके लिए यह मुकाबला एशिया कप की प्रतिष्ठा है और खिलाड़ी देश का गौरव। वहीं दूसरा तबका तर्क देता है कि खेल की आड़ में पाकिस्तान के साथ दोस्ती का दिखावा नहीं होना चाहिए। बीच का रास्ता तलाशते कुछ क्रिकेट विशेषज्ञ कह रहे हैं “मैच होना तो तय है, लेकिन इसे ग्लैमराइज न किया जाए। खिलाड़ियों को अपना काम करने दो, लेकिन देश की भावनाओं का भी ख्याल रखो। याद रखो कि ये सिर्फ बैट और बॉल की लड़ाई नहीं, बल्कि उन शहीदों का दर्द भी है जिनकी शहादत अभी ताज़ा है।” यानी दुबई की पिच पर ये मुकाबला सिर्फ क्रिकेट का नहीं होगा। गेंद और बल्ले के बीच हर रन के साथ लोगों के मन में सवाल गूंजेगा क्या ये खेल है या कारोबार? क्या ये क्रिकेट है या कूटनीति? और क्या ये जश्न है या ज़ख्म पर मरहम? 14 सितम्बर को जब भारत-पाक आमने-सामने होंगे, तब टीवी पर चौके-छक्के गूंजेंगे, लेकिन उनके बीच से उठती आवाज़ ये भी होगी “खेलो ज़रूर, लेकिन मत भूलो, ये सिर्फ खेल नहीं।
ज़रा सोचिए… आपके सामने आपका पति है, आपका पिता है। वह भाग रहा है, जान बचाने की कोशिश कर रहा है। और पीछे से कोई आदमी, हाथ में चाकू जैसा मचेते लहराते हुए पीछा कर रहा है। आप चीखते हैं, रोकने की कोशिश करते हैं, पर कोई आपकी नहीं सुनता। और फिर कुछ ही सेकंड में आपके सामने आपका सबसे प्यारा इंसान… सिर कटकर गिर जाता है। ये कोई फिल्म का सीन नहीं है। यह डलास, टेक्सास की खौफनाक सच्चाई है। भारतीय मूल के चन्द्र मौली नागमल्लैया की हत्या इतनी बेरहमी से हुई कि इस कहानी ने न सिर्फ अमेरिका बल्कि पूरी दुनिया को हिला दिया। यह वारदात किसी गैंगवार या लूट की वजह से नहीं हुई, बल्कि एक टूटी हुई वॉशिंग मशीन को लेकर शुरू हुई।नागमल्लैया ने कहा: “इसे मत चलाओ, ये खराब है।” आरोपी भड़क गया। गुस्से में कमरे से बाहर गया और मचेते उठाकर लौट आया। नागमल्लैया जान बचाने के लिए दौड़े, ऑफिस की तरफ भागे जहाँ उनकी पत्नी और बेटा बैठे थे। लेकिन आरोपी ने पीछा किया, और ऑफिस में घुसकर उन पर कई वार किए। पत्नी और बेटे ने बीच में आने की कोशिश की, पर आरोपी ने उन्हें धक्का देकर हटा दिया। आखिरकार नागमल्लैया का गला काट दिया गया। सिर को आरोपी ने उठाया, बाहर पार्किंग लॉट तक ले गया और फिर कचरे के डिब्बे में फेंक दिया। ये सब कुछ मोटेल के CCTV कैमरों में दर्ज हुआ। CCTV फुटेज में साफ दिखता है कि किस तरह नागमल्लैया जान बचाने के लिए भाग रहे थे। उनके चेहरे पर डर साफ था। पीछे से आरोपी हथियार लहराते हुए दौड़ रहा था। फुटेज का सबसे डरावना हिस्सा बाहर का है जहाँ आरोपी सिर लेकर निकलता है और कचरे में फेंक देता है। ये फुटेज इतना ग्राफिक था कि पब्लिक में सिर्फ कुछ हिस्से ही दिखाए गए। लेकिन जो दिखा, वही रूह कंपाने के लिए काफी है।
इस घटना के सबसे बड़े गवाह नागमल्लैया की पत्नी और बेटा हैं।
उन्होंने अपनी आँखों से देखा कि कैसे पिता को बचाने की कोशिश नाकाम रही। उन्होंने अपने सामने पिता का खून बहते देखा। उन्होंने देखा कि किस तरह उनका सिर अलग कर दिया गया और कचरे में फेंक दिया गया। यह सिर्फ एक हत्या नहीं थी, यह एक परिवार की जिंदगी का सबसे बड़ा मनोवैज्ञानिक ज़ख्म था। सोचिए उस बेटे की आँखों में क्या-क्या दर्ज हो गया होगा। ये वो मंजर है जिसे वो शायद कभी भूल नहीं पाएगा। पुलिस ने आरोपी को मौके पर गिरफ्तार कर लिया। उस पर Capital Murder का केस चला है यह अमेरिका में सबसे बड़ा अपराध है, जिसमें दोषी को उम्रकैद या मौत की सज़ा तक हो सकती है। लेकिन कानून की सज़ा भी क्या उस खून के धब्बों को मिटा पाएगी जो पत्नी और बेटे के दिल पर हमेशा के लिए लग चुके हैं? नागमल्लैया की कहानी अकेली नहीं है। अमेरिका में लगभग 50 लाख भारतीय मूल के लोग रहते हैं। इनमें से हज़ारों परिवार मोटेल्स चलाते हैं। मोटेल बिज़नेस भारतीयों का सबसे बड़ा काम माना जाता है। लेकिन यही मोटेल्स कई बार लूट, हिंसा और हमलों के सबसे आसान निशाने बनते हैं। कड़वी सच्चाई 2017, कंसास: भारतीय इंजीनियर श्रीनिवास कुचिभोटला की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। 2019, न्यू जर्सी: भारतीय महिला की हत्या उसके ही पति ने कर दी थी। हर साल ऐसी कई घटनाएँ होती हैं जिनमें भारतीय नस्लीय हिंसा या झगड़ों का शिकार बनते हैं। ऐसे ही लेटेस्ट खबरों के लिए सब्सक्राइब करे ग्रेट पोस्ट न्यूज़।