दिल्ली की राजनीति में इन दिनों मौसम बरसात का नहीं, 'नोबेल' का है। और इस मौसम की पहली 'बिजली' चमकाई है खुद आम आदमी पार्टी के मुखिया और दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने, जिन्होंने चंडीगढ़ में 'The Kejriwal Model' किताब के पंजाबी संस्करण के विमोचन पर बोलते हुए कहा – "इतनी बाधाओं के बावजूद हमने इतना काम किया कि अब तो मुझे गवर्नेंस के लिए नोबेल मिल जाना चाहिए!" अब कोई आम आदमी ऐसी बात कहे तो चाय की दुकान पर लोग हँसते हुए चाय का घूंट लेते, लेकिन जब यह बात 'आम आदमी' के राष्ट्रीय संयोजक और दिल्ली की सियासत के एक प्रमुख चेहरे की ओर से आती है, तो फिर चाय से ज़्यादा तीखी प्रतिक्रिया तो चूल्हे पर चढ़ी 'राजनीति की कड़ाही' में उबलती है। बीजेपी ने इस बयान को "हास्यास्पद" बताया है। दिल्ली बीजेपी के अध्यक्ष वीरेंद्र सचदेवा ने कहा – "अगर नोबेल में अराजकता, अक्षमता और भ्रष्टाचार की कोई कैटेगरी होती, तो केजरीवाल जी अब तक दो बार विजेता बन चुके होते!" बात व्यंग्य की है, पर राजनीतिक कटाक्ष भी इसमें पूरी शिद्दत से शामिल है। सचदेवा ने पैनिक बटन घोटाले से लेकर ‘शीश महल’ यानी मुख्यमंत्री आवास नवीनीकरण तक की पूरी लिस्ट पेश कर दी – मानो कह रहे हों कि "काम के नहीं, मामलों के मॉडल हो आप।"AAP भी चुप नहीं बैठी। पार्टी के प्रवक्ता और पूर्व मंत्री सौरभ भारद्वाज ने तंज कसते हुए कहा, "अब तो आप सरकार में हैं साहब, काम दिखाइए – नाम गिनाने और नाम गाली देने का दौर अब गुजर चुका है।" भारद्वाज ने ये साफ कर दिया कि AAP अभी भी अपने ट्रैक रिकॉर्ड को ले कर आश्वस्त है – चाहे वो दिल्ली के सरकारी स्कूल हों या मोहल्ला क्लिनिक।
केजरीवाल का कहना है कि जब-जब उन्हें काम करने से रोका गया, उन्होंने और बेहतर काम किया। अगर ये सही है, तो L-G और केंद्र सरकार की भूमिका को वो अप्रत्यक्ष रूप से अपनी उपलब्धियों के लिए 'स्पीड ब्रेकर' नहीं बल्कि 'ट्रैक्टर' कह रहे हैं – जो जमीन को जोतकर उपजाऊ बना रहे हैं। पर विडंबना यह है कि जिस वक्त वे नोबेल की बात कर रहे थे, उसी वक्त भ्रष्टाचार से जुड़े कई पुराने ‘फाइल’ एक बार फिर खुलती नज़र आ रही हैं। दरअसल, ये पूरा घटनाक्रम एक बार फिर ‘आप’ बनाम ‘बीजेपी’ का है । एक पक्ष खुद को 'सिस्टम से लड़ने वाला आम आदमी' साबित करता है, तो दूसरा पक्ष उसे 'सिस्टम को तोड़ने वाला राजनीतिक नौटंकीबाज़' करार देता है। लेकिन असली सवाल दिल्लीवालों का है – उन्हें स्कूल, पानी, बिजली, स्वास्थ्य और ट्रैफिक से मतलब है, नोबेल की स्पीच से नहीं। जनता जानती है कि भाषणों में चाहे जितने पुरस्कार बांट दिए जाएं, जमीनी सच्चाई वही रहेगी जो दिन-रात उन्हें भुगतनी पड़ती है।