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Breaking News 11 September 2025

1 ) ट्रंप के करीबी चार्ली किर्क की ऑन कैमरा सरेआम हत्या

अमेरिका का Utah Valley University में लगा कैंप लोगों से खचाखच भरा हुआ था। The American Comeback Tour का पड़ाव था, और मंच पर बैठे थे चार्ली किर्क। उम्र सिर्फ़ 31 साल, लेकिन करियर ऐसा जैसे राजनीति का पुराना खिलाड़ी हो। Turning Point USA नाम का संगठन बनाकर उन्होंने युवाओं के बीच कंज़रवेटिव विचारधारा का झंडा बुलंद किया था। सोशल मीडिया पर लाखों-करोड़ों फॉलोअर्स, पॉडकास्ट पर धारदार बोल, और कैंपस में टेबल लगाकर कहा जाता था “Prove Me Wrong।” यानी आप सवाल पूछिए, मैं जवाब दूंगा।

उस दिन भी कुछ ऐसा ही था। एक स्टूडेंट खड़ा हुआ और सवाल किया mass shootings पर। विडंबना देखिए अमेरिका के सबसे जलते सवालों में से एक। और ठीक उसी वक्त, जब किर्क इस पर तर्क गढ़ रहे थे, तभी गोलियों की आवाज़ गूंजी। एक गोली, सीधे गर्दन की तरफ़। पूरा हॉल सन्न। शोर और चीखें। और फिर अफरा-तफरी। चार्ली तुरंत गिर पड़े। लोगों ने उन्हें उठाया, स्ट्रेचर आया, एम्बुलेंस दौड़ी। अस्पताल ले जाया गया लेकिन डॉक्टरों ने हार मान ली। कहते हैं गोली बहुत दूर से चली थी, करीब 180–200 गज की दूरी से। शक है कि किसी बिल्डिंग की छत से ट्रिगर दबाया गया। बस एक गोली, लेकिन उसने न सिर्फ़ चार्ली किर्क को गिरा दिया, बल्कि अमेरिकी राजनीति में भूचाल ला दिया। सोशल मीडिया और टीवी पर वो वीडियो खूब चला एक बुज़ुर्ग आदमी को पुलिस भीड़ से निकालकर ले जा रही है। कईयों को लगा बस, यही है हत्यारा! लेकिन पुलिस ने बाद में साफ किया ये शख़्स person of interest था, यानी जांच में मदद के लिए पकड़ा गया था, लेकिन वही शूटर नहीं था। सबूतों की कमी में उसे छोड़ दिया गया। यानी असली गुनहगार अब भी बाहर है। सवाल ये क्या वो प्रोफेशनल स्नाइपर था? कोई एजेंडा लेकर आया था? या फिर महज़ नफरत में किसी ने ये सब कर डाला? जवाब अभी भी धुंध में है। चार्ली किर्क के गिरते ही राजनीति का बाज़ार गरम हो गया। बयानबाज़ी की रेल चली। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने कहा “चार्ली महान थे, एक लीजेंड। उनकी हत्या राजनीतिक हिंसा का नतीजा है। Radical Left इसके पीछे है।” ट्रम्प ने अपनी खास शैली में इस घटना को अपने पक्ष में घुमाने की कोशिश की। जो बाइडन ने कहा “हिंसा का लोकतंत्र में कोई स्थान नहीं है। यह तुरंत रुकना चाहिए। मैं और जिल (बाइडन की पत्नी) किर्क के परिवार के लिए प्रार्थना करते हैं।” बराक ओबामा ने इसे “despicable violence” कहा और साफ किया कि मकसद चाहे जो भी हो, लोकतंत्र सवाल-जवाब से चलता है, गोलियों से नहीं। उन्होंने खासतौर पर चार्ली की पत्नी और दो छोटे बच्चों के लिए संवेदना जताई। राजनीतिक रंग भी दिखा ट्रम्प इसको लेफ्ट की हिंसा कहकर चुनावी हथियार बनाने लगे, वहीं डेमोक्रेट्स इसे गन कंट्रोल की बहस में एक और उदाहरण बताने लगे। इस सबके बीच सबसे बड़ा सच है चार्ली किर्क अब नहीं रहे। पीछे रह गईं उनकी पत्नी और दो मासूम बच्चे। एक बच्चा तो अभी स्कूल जाने की उम्र में भी नहीं पहुँचा। सवाल यही कि ये बच्चे कल अपने पिता को कहाँ देखेंगे? टीवी पर? यूट्यूब के पुराने डिबेट वीडियो में? या अखबारों की हेडलाइंस में? अमेरिका में गन वायलेंस कोई नई बात नहीं। हर साल, हर महीने, हर हफ़्ते कहीं न कहीं कोई मास शूटिंग होती है। लेकिन इस बार फर्क ये है कि mass shootings पर सवाल पूछते वक्त ही वक्ता खुद शिकार बन गया। ऐसे ही देश दुनिया की बड़ी खबरों के लिए सब्सक्राइब करें ग्रेट पोस्ट न्यूज़।

 

2 ).: कौन हैं भारत के नए उपराष्ट्रपति और क्यों चुने गए?

भारत को नया उपराष्ट्रपति मिल गया है और नाम है सी.पी. राधाकृष्णन। तमिलनाडु की राजनीति में जिन्हें "कोयम्बटूर का मोदी" कहा जाता रहा है, अब वे भारत के 15वें उपराष्ट्रपति बन गए हैं। जगदीप धनखड़ के इस्तीफ़े के बाद यह कुर्सी खाली थी और सबको इंतज़ार था कि अगला नाम कौन होगा। एनडीए ने तुरुप का पत्ता फेंका और मैदान में उतार दिया राधाकृष्णन को, वहीं विपक्ष ने खड़ा किया जस्टिस बी. सुदर्शन रेड्डी को। 9 सितंबर को संसद में वोटिंग हुई और नतीजे ने साफ कर दिया कि गिनती का खेल किसके पक्ष में है। राधाकृष्णन को मिले 452 वोट और रेड्डी को सिर्फ 300। यानी 152 वोटों की तगड़ी बढ़त, जिसमें क्रॉस-वोटिंग का भी तड़का लगा जिसने विपक्ष की "एकजुटता" की असली पोल खोल दी।

अब सवाल यह कि राधाकृष्णन ही क्यों? दरअसल, वे लंबे समय से आरएसएस और भाजपा से जुड़े हुए हैं, दो बार कोयम्बटूर से सांसद रहे और हाल ही में झारखंड और तेलंगाना के राज्यपाल भी। दक्षिण भारत का प्रतिनिधित्व, संगठन का भरोसा और पार्टी की ताकत तीनों का मिला-जुला गणित उन्हें उपराष्ट्रपति की कुर्सी तक ले आया। खुद राधाकृष्णन ने जीत को "राष्ट्रवाद की विजय" बताया, जबकि विपक्ष ने इसे "वैचारिक लड़ाई" कहकर अपनी हार का बचाव किया। लेकिन सच्चाई यही है कि यह जीत सिर्फ वोटों की नहीं थी, बल्कि भाजपा की राजनीतिक पकड़ और विपक्ष के बिखरे हुए समीकरण की तस्वीर भी थी।

अब ज़िम्मेदारी और भी बड़ी है। उपराष्ट्रपति की कुर्सी कोई शो-पीस नहीं होती। राज्यसभा के सभापति के रूप में राधाकृष्णन को अब रोज़ाना के हंगामे, तकरार और वॉकआउट को संभालना होगा। सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच बैलेंस बैठाना होगा और जरूरत पड़ने पर राष्ट्रपति की कुर्सी की जिम्मेदारी भी उठानी होगी। राजनीति की दुनिया में हर जीत को कोई "विचारधारा की विजय" बताता है और हर हार को "संख्या बल की मजबूरी", लेकिन इस बार तस्वीर साफ है सी.पी. राधाकृष्णन तमिलनाडु की गलियों से निकलकर दिल्ली की सबसे अहम कुर्सियों में से एक पर बैठ गए हैं। अब उनके सामने असली टेस्ट है लोकतंत्र की आवाज़ को संतुलित ढंग से संभालने का। सब्सक्राइब और लाइक करे ग्रेट पोस्ट न्यूज़ को ताकि आप देश दुनिया से जुड़े रहे।

 

3 ) आखिर ये SIR है क्या ? बिहार से दिल्ली तक क्यों है चर्चा

बिहार में इन दिनों एक शब्द ने पूरा सियासी तापमान हाई कर दिया है एस आई R अब आम लोग पूछते हैं “भाई ये SIR कौन-सा नया अफसर है या कोई स्कीम?” तो जरा ठहरिए और समझिए। SIR का मतलब है Special Intensive Revision। ये चुनाव आयोग की एक खास प्रक्रिया है, जिसके तहत voter list की गहन समीक्षा होती है। इसमें पुराने, गलत, फर्जी या डुप्लीकेट नाम हटाए जाते हैं और नए-नए पात्र मतदाताओं को शामिल किया जाता है। यानी इसे ऐसे समझिए वोटर लिस्ट की सालाना ‘धुलाई-पोंछाई’। लेकिन जब मामला वोट और लोकतंत्र का हो, तो धूल झाड़ने भर से बात कहाँ थमती है! यही वजह है कि SIR ने बिहार की गलियों से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक हड़कंप मचा रखा है।

विवाद की जड़ क्या है?

विपक्ष का आरोप है कि SIR की आड़ में बड़े पैमाने पर गरीब, दलित, अल्पसंख्यक और वंचित वर्गों को मतदाता सूची से बाहर किया जा सकता है। उनका कहना है कि पहचान और कागज़ों की जटिलता ऐसे तबकों को वोट से वंचित कर सकती है। वहीं सत्ता पक्ष का तर्क है यह कदम मतदाता सूची को क्लीन और पारदर्शी बनाने के लिए ज़रूरी है, ताकि चुनाव में फर्जी वोटिंग का खेल खत्म हो। इस खींचतान के बीच कई याचिकाएँ सुप्रीम कोर्ट पहुँच गईं। कोर्ट से माँग की गई कि या तो SIR प्रक्रिया को रोक दिया जाए, या फिर इसे पारदर्शी और जनहितकारी बनाया जाए।

अब आते हैं आज के सबसे ताज़ा और बड़े फैसले पर
सुप्रीम कोर्ट ने क्या क्या कहा 
1. आधार कार्ड पहचान के लिए मान्य होगा।
अगर किसी मतदाता के पास वोटर आईडी नहीं है, तो वह आधार कार्ड के जरिए अपनी पहचान साबित कर सकता है।
2. लेकिन आधार नागरिकता का प्रमाण नहीं है।
कोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया कि आधार सिर्फ पहचान का साधन है, नागरिकता का सबूत नहीं। यानी सिर्फ आधार होने से यह साबित नहीं होगा कि कोई व्यक्ति भारत का नागरिक है।
3. दस्तावेजों की संख्या बढ़ाओ।
कोर्ट ने चुनाव आयोग से कहा कि आधार के अलावा और भी पहचान पत्र मान्य किए जाएँ। जैसे राशन कार्ड, पासपोर्ट, ड्राइविंग लाइसेंस या अन्य सरकारी आईडी। ताकि किसी नागरिक को मताधिकार से वंचित न होना पड़े।
4. SIR पर रोक नहीं।
सबसे अहम बात सुप्रीम कोर्ट ने SIR प्रक्रिया को रोकने (stay) से इनकार कर दिया। यानी बिहार में मतदाता सूची की समीक्षा जारी रहेगी। बस चुनाव आयोग को इस प्रक्रिया को और सहज व पारदर्शी बनाने का निर्देश मिला है । ये फैसला केवल कागज़ी नहीं, बल्कि लोकतंत्र की नींव को छूता है। अगर आधार को मान्यता न मिलती तो लाखों ऐसे लोग, जिनके पास वोटर आईडी नहीं है, वोट से वंचित हो सकते थे। दूसरी ओर अगर आधार को नागरिकता का प्रमाण मान लिया जाता, तो इसका दुरुपयोग भी संभव था। कोर्ट ने दोनों के बीच बैलेंस बना दिया पहचान की सुविधा भी दी, और नागरिकता की बहस से इसे अलग भी रखा। अब चुनाव आयोग के ऊपर दबाव है कि वह ज़मीनी स्तर पर यह सुनिश्चित करे कि किसी असली नागरिक का नाम लिस्ट से न कटे, और कोई फर्जी नाम घुस न पाए। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद राजनीतिक बयानबाज़ी तेज हो गई है। विपक्ष ने इसे लोकतंत्र की जीत बताया। उनका कहना है कि इससे लाखों लोग अपने वोटिंग अधिकार से वंचित होने से बच गए। कुछ सामाजिक संगठनों ने सतर्क किया कि गाँव-देहात और गरीब इलाकों में अभी भी दस्तावेज़ बनवाना मुश्किल है। अगर प्रशासन ने सख्ती दिखाई तो समस्या बनी रह सकती है। सत्ता पक्ष और समर्थक इसे पारदर्शिता की दिशा में बड़ा कदम मान रहे हैं। उनका कहना है कि अब वोटर लिस्ट साफ होगी, फर्जीवाड़ा रुकेगा और असली मतदाता का वोट ही गिना जाएगा। आगे क्या होगा? अब सारी नज़र चुनाव आयोग पर है। आयोग को आधार और अन्य दस्तावेज़ों को स्वीकार करने की व्यवस्था करनी होगी। "क्लेम एंड ऑब्जेक्शन" की प्रक्रिया को और आसान बनाना होगा, ताकि कोई भी व्यक्ति अगर लिस्ट से छूट जाए तो वह आसानी से आवेदन कर सके। सबसे बड़ी चुनौती यह होगी कि SIR प्रक्रिया तेज़ भी हो और पारदर्शी भी। क्योंकि बिहार में आने वाले विधानसभा चुनाव से पहले यह अभ्यास पूरा करना ही होगा। अब देखना यह है कि चुनाव आयोग इस फैसले को कितनी ईमानदारी और सख़्ती से लागू करता है। क्योंकि लोकतंत्र की असली ताकत चुनाव से नहीं, बल्कि उस वोटर से है जो लाइन में खड़ा होकर बटन दबाता है। लेटेस्ट खबरों के लिए जुड़े रहे ग्रेट पोस्ट न्यूज़ से।