नेपाल आज बारूद और राख से ढकी पड़ी है। संसद की दीवारें राख बन चुकी हैं, सुप्रीम कोर्ट के दस्तावेज़ धुएँ में उड़ गए, प्रधानमंत्री को इस्तीफा देना पड़ा, और भीड़ के गुस्से ने देश के लोकतंत्र को झकझोर दिया। लेकिन यह सिर्फ नेपाल की बात नहीं है। यह कहानी बांग्लादेश की भी है, जहाँ नेताओं के घर तोड़े गए। यह इंडोनेशिया की भी है, जहाँ मजदूर की लाश से संसद जल गई। यह श्रीलंका की भी है, जहाँ भूखे पेट ने राष्ट्रपति भवन गिरा दिया। सवाल उठता है आखिर क्यों ये देश बार-बार टूट रहे हैं? और जवाब में एक ही दर्शन उभरता है भूख और बेरोज़गारी से बड़ा कोई विद्रोही नहीं, और जब जनता उठती है तो सिंहासन तक राख हो जाते हैं। नेपाल की सड़कों पर आज जो हो रहा है, वह सिर्फ फेसबुक-ट्विटर बंद होने का गुस्सा नहीं है। यह उस पीढ़ी की चीख है जिसे नौकरी नहीं मिली, जिसे विदेश भागना पड़ा, जिसे लगा कि उसकी आवाज़ ही अब बेकार है। संसद, सिंहदरबार और सुप्रीम कोर्ट तक आग की लपटें पहुँचीं। हज़ारों फाइलें, केस और दस्तावेज़ जलने की खबरें सामने आईं। कोई 25,000 फाइल कहता है, कोई 60,000। कर्फ्यू ने शहर को एक कैदखाना बना दिया वहीँ बांग्लादेश की गलियों में जो हुआ, वह और भी सीधा था। यहाँ बेरोज़गार हाथों ने नेताओं के महलों को गिरा दिया। नेताओं के घर लूटे गए, तोड़े गए। नेताओं के बच्चे विदेशों में पढ़ रहे हैं, वहीं गरीब का बच्चा यहाँ बेरोज़गारी से जूझ रहा है। जब जनता को लगता है कि नेता अपने बच्चों को बचा रहे हैं और हमारी पीढ़ी को बेच रहे हैं, तो गुस्सा हिंसा में बदलता है। बांग्लादेश की सड़कों पर वही हुआ लोकतंत्र की किताब जलाई नहीं गई, बल्कि नेताओं की ऐश्वर्यशाली दीवारें जलाई गईं। वहीँ इंडोनेशिया में एक मजदूर की मौत ने पूरे देश को जला दिया। पुलिस की गोली ने एक आम आदमी की जान ले ली। संसद पर हमला हुआ, आगजनी और लूट की घटनाएँ सामने आईं। सरकार को पुलिस अधिकारियों को हटाना पड़ा, लेकिन जनता का भरोसा टूटा रहा। वहीँ श्रीलंका ने दुनिया को दिखा दिया कि भूखा पेट किसी भी लोकतंत्र को गिरा सकता है। पेट्रोल खत्म, दवा खत्म, खाने का अनाज खत्म। IMF के कर्ज ने देश को जकड़ लिया और जनता ने राष्ट्रपति भवन पर कब्जा कर लिया। नेता भाग गए, लेकिन भूख रुकी नहीं। आज भी श्रीलंका IMF की बैसाखी पर खड़ा है।
आइये जानते है फिलॉसफी और मनोविज्ञान से कि क्यों टूटते हैं ये देश?
अगर चारों देशों की कहानियों को जोड़ो, तो एक पैटर्न साफ दिखता है
1. बेरोज़गारी: जब युवा बेरोज़गार होता है, तो वह व्यवस्था पर भरोसा खो देता है।
2. असमानता: जब नेता ऐश करें और जनता भूखी रहे, तो वह असमानता हिंसा में बदलती है।
3. आवाज़ दबाना: सोशल मीडिया बैन हो या पुलिस की गोली, जनता जब बेआवाज़ होती है तो उसकी चीख लपटों में बदल जाती है।
4. भूख: भूखा आदमी दर्शन नहीं, सिर्फ न्याय और रोटी देखता है। यही कारण है कि श्रीलंका जैसे देश में जनता ने महलों की दीवारें गिरा दीं।
तो अभी क्या हो रहा है और आगे क्या होगा? नेपाल में कर्फ्यू लगा है, सेना तैनात है, लेकिन यह आग सिर्फ सड़कों पर नहीं, दिमागों में लगी है। बांग्लादेश अभी भी अस्थिर है, और युवा संगठित हो रहे हैं। इंडोनेशिया में सुधार की बातें हो रही हैं, लेकिन जनता का भरोसा टूट चुका है। श्रीलंका अब भी कर्ज़ की बेड़ियों में है, और अगला आर्थिक झटका फिर अशांति ला सकता है। अगर सरकारें सोचती हैं कि ये आंदोलन दब जाएंगे, तो यह उनकी सबसे बड़ी भूल होगी। क्योंकि ये विद्रोह पेट और रोजगार से जुड़े हैं और जब तक यह सवाल हल नहीं होंगे, तब तक हर संसद, हर कोर्ट और हर महल इस आग की जद में रहेगा। नेपाल, बांग्लादेश, इंडोनेशिया और श्रीलंका ये चारों देश हमें एक कड़वा सच सिखा रहे हैं। लोकतंत्र तब तक जिंदा है, जब तक जनता को रोटी, रोजगार और न्याय मिलता है। जब जनता भूखी हो, बेरोज़गार हो और उसकी आवाज़ दबाई जाए, तो संसद सिर्फ पत्थर की इमारत है और नेता सिर्फ डरपोक इंसान। ग्रेट पोस्ट न्यूज़ पर मिलेगा देश दुनिया की हर वो पहलु हर एक सच्चाई जो कहीं और नहीं तो सब्सक्राइब करे।
नेपाल जैसी तबाही अब यूरोप के पेरिस में दिखाई दे रही है। फर्क इतना है कि नेपाल में वजह इंटरनेट पर ताले की थी और पेरिस में वजह है जनता की जेब और ज़िंदगी पर बोझ डालती सरकारी नीतियाँ। फ्रांस की राजधानी इन दिनों किसी जंग के मैदान जैसी दिख रही है। आंदोलन का नाम रखा गया है “Bloquons Tout” यानी Block Everything, और नाम के मुताबिक सच में सबकुछ ब्लॉक हो गया है। पेरिस की सड़कें जाम हैं, रेलवे ट्रैक पर भीड़ उतर आई है, मेट्रो सेवाएं ठप हैं और जगह-जगह टायरों की आग धधक रही है। जिस शहर को दुनिया रोशनी और रोमांस का प्रतीक मानती है, वहां आज गुस्से की लपटें हैं और नारेबाज़ी गूंज रही है। गुस्से की वजहें साफ़ हैं। महीनों से लोग शिक्षा और स्वास्थ्य पर बजट कटौती से परेशान थे। महंगाई और बेरोज़गारी ने और दबाव बना दिया। ऊपर से नए प्रधानमंत्री की नियुक्ति ने आग में घी का काम किया। जनता का कहना है कि उनके मुद्दे सुने ही नहीं जा रहे, फैसले बंद कमरों में लिए जा रहे हैं और लोकतंत्र का मतलब सिर्फ़ चुनाव जीतना भर रह गया है। नतीजा ये हुआ कि लोग सड़कों पर उतर आए और सरकार को सीधे चुनौती दे डाली। हालात काबू करने के लिए पुलिस ने पूरी ताकत लगा दी। आंसू गैस के गोले छोड़े गए, लाठियां चलीं और अब तक करीब 200 लोगों को गिरफ्तार किया जा चुका है। सिर्फ़ राजधानी ही नहीं, ल्यों और मार्से जैसे बड़े शहरों में भी यही तस्वीर है। ट्रेन सेवाएं घंटों बाधित रहीं, मेट्रो का पहिया थम गया और आम लोगों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी अस्त-व्यस्त हो गई। ये आंदोलन सिर्फ़ पेरिस की सड़कों का शोर नहीं है, बल्कि सत्ता और जनता के बीच बढ़ती दूरी का आईना है। नेपाल और पेरिस दोनों जगह वजहें अलग हैं, लेकिन तस्वीर एक जैसी है। वहां संसद जली, यहां रेलवे स्टेशन ठप हुए। वहां प्रधानमंत्री ने इस्तीफ़ा दिया, यहां राष्ट्रपति मैक्रों पर दबाव बढ़ रहा है। दोनों जगह सवाल वही है क्या लोकतंत्र का मतलब सिर्फ़ सत्ता की कुर्सी बचाना है या जनता की आवाज़ सुनना भी? पेरिस की सड़कों से उठता धुआं इस समय पूरी दुनिया देख रही है। ये सिर्फ़ टायर जलने का धुआं नहीं, बल्कि उस भरोसे का धुआं है जो जनता ने अपने नेताओं पर किया था। अगर सरकार ने वक़्त रहते हालात नहीं संभाले, तो पेरिस की ये आग सिर्फ़ शहर तक सीमित नहीं रहेगी, बल्कि पूरी फ्रांसीसी राजनीति को झकझोर सकती है। ऐसे ही लेटेस्ट खबरों के लिए सब्सक्राइब करे ग्रेट पोस्ट न्यूज़।